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शर्म, संकोच और हठधर्मिता की आखिर नहीं चल सकी।
जून 15, 1988
गुरुदेव श्री रामलालजी सियाग
एवीएसके, जोधपुर के संस्थापक और संरक्षक

मैं प्रारम्भ में ही स्पष्ट कर चुका हूँ कि मैंने कभी किसी धार्मिक ग्रन्थ का अध्ययन नहीं किया। मुझे जो कुछ भी प्राप्त हुआ, उसमें किसी प्रकार का मानवीय प्रयास या बुद्धि का लेशमात्र भी सहयोग नहीं रहा।अनायास सब कुछ मिलता ही गया। इस युग का मानव अचम्भा करता है कि बिना प्रयास और बिना इच्छा के ऐसा कैसे सम्भव है ? परन्तु यह एक सच्चाई है। विभिन प्रकार की शक्तियां और सिद्धियाँ आती गईं, परन्तु मुझे किसी अदृश्य शक्ति ने तनिक भी उनकी तरफ आकर्षित नहीं होने दिया।

  • इसी दौरान त्रिगुणमयी माया (ब्रह्मा, विष्णु, महेश) से साक्षात्कार हुआ।प्रथम व्यक्ति आगे सीधा चल रहा था, वह अप्रभावित सीधा चलता हुआ मेरे सामने से गुजर गया। उसके बारे में मुझे विश्वकर्मा की अनुभूति करवाई गई। दूसरे नम्बर पर चलने वाला व्यक्ति बहुत चंचल था। उसका हर अंग निरन्तर गतिमान था। क्षण भर में वह सब दिशाओं में देख लेता था। उसके बारे में मुझे नारायण की अनुभूति करवाई गई। इतने में तीसरा व्यक्ति यह कहता हुआ भागता आया कि "सब को मार आया।"

  • उस समय वे तीनों ठीक मेरे सामने से गुजर रहे थे। बीच वाले व्यक्ति ने कहा मैं बताऊँ उसे मार सकते हो क्या? उसने कहा हाँ। इस पर उसने मेरी तरफ इशारा कर दिया। वे तीनों दक्षिण से उत्तर की तरफ जा रहे थे और मैं बांई तरफ (पश्चिम) पूर्व की तरफ मुँह किये रास्ते के किनारे थोड़ी दूरी पर खड़ा था। तीसरा व्यक्ति मेरी तरफ देखे बिना ही मेरी तरफ चल दिया। दो चार कदम आगे बढ़ कर ज्यों ही उसने मेरी तरफ देखा, संकोचवश शर्मिन्दा हो कर ठिठक कर - खड़ा हो गया और दूसरे नम्बर वाले व्यक्ति से बोला, "इनकी तो मैं बहुत इज्जत करता हूँ, इन्हें कैसे मार सकता हूँ।" उसने जो कुछ कहा उसका ऐसा ही कुछ भाव था। इस पर दूसरे व्यक्ति ने उसे मजाक के रूप में शर्मिन्दा किया और तीनों चले गए।

  • इस प्रकार 'अगम लोक' तक की सभी शक्तियों से साक्षात्कार और प्रत्यक्षानुभूतियाँ निरन्तर होती ही चली गईं। एक संत मत को मानने वाला बुढ्ढा व्यक्ति, जहाँ मैं काम करता था, मेरी सीट के पास आकर बैठ जाताऔर इस प्रकार की अनुभूतियाँ बड़ी दिलचस्पी से पूछता रहता था।

एक बार आराधना के दौरान किसी व्यक्ति ने कह दिया कि गीता का हर श्लोक स्वयं सिद्ध मंत्र है। उसे सिद्ध करने की जरूरत नहीं। उसका जप तत्काल चमत्कार दिखाता है। इस पर मैंने गीता के 11वें अध्याय का 38,39,40 वें श्लोकों (तीनों का) जप प्रारम्भ कर दिया। कुछ ही दिनों में एक हृष्ट-पुष्ट नौ जवान मेरे सामने प्रातः 5 बजे, जब मैं अर्द्ध जाग्रत अवस्था में, आँख बन्द किये लेटा हुआ था तो हाथ जोड़ कर खड़ा हो गया। मैं उसे जानता नहीं था इसलिए पूछा तुम कौन हो? उसने कहा 'सोअहम्', मुझे सुनाई दिया सोहन। क्योंकि मैं समझा इसका नाम सोहन है, अतः अपना नाम बताया है। मैंने कहा, भाई! मैं तो तुम्हें नहीं जानता, क्यों आये हो ? उसने कहा आपने बुलाया है। मैंने उसे कहा तुम्हें किसी ने गलत कह दिया है, मैं तुम्हें जानता ही नहीं, मेरा तुमसे काम क्या हो सकता है ? तुम चले जाओ। इस पर वह चला गया।
  • आगे चल कर मुझे सोअहम के बारे में बताया गया तो मैं समझा कि वह कोई सोहन नहीं था, इस सम्बन्ध में उस संत मत के बुजुर्ग व्यक्ति से मैंने जब पूरी जानकारी ली तो मुझे बहुत ही आश्चर्य हुआ। मैं गहरे विचार में कई दिन डूबा रहा कि शिव प्राणी मात्र का संहार करता है फिर मुझको क्यों नहीं मार सकता है? आखिर मैं क्या हूँ, कौन हूँ?

  • एक बार कई दिनों के लिए, मैं गाँव गया हुआ था। यह विचार उस समय बहुत गहराई तक पहुँच गया। एक दिन मेरा छोटा पुत्र 'यूहन्ना' नामक छोटी पुस्तक कहीं से उठा लाया। कोई काम न होने से उसे पढ़ने लग गया। उस ईसाईयों की पुस्तक में बहुत आनन्द आया। मैं नहीं समझ सका, इसमें ऐसी क्या बात है, जो मुझे इतना प्रभावित कर रही है परन्तु मुझे मेरे प्रश्न का उत्तर मिल गया। पुस्तक का वह अंश जो मेरा उत्तर था उसके नीचे मैंने लाइनें खींच दी। मैं इस उत्तर से भारी अचम्भे में पड़ गया। शर्म और संकोच के कारण मैंने आज तक इस बात को किसी को कहा नहीं।

  • इसके पहले भी मुझे विदेशी लोगों से सम्पर्क के दृश्य दिखाये जाते थे और वह क्रम आज भी जारी है। वाशिंगटन यूनिवर्सिटी को लिखा पत्र इसी का कारण हैं परन्तु उस पत्र में भी मैंने वस्तु स्थिति का वर्णन मात्र करने का प्रयास किया है, संकोचवश इस संदर्भ में एक शब्द भी नहीं लिखा। यूहन्ना नाम उस छोटी पुस्तक का वह अंश जो मेरे प्रश्न का उत्तर था इस प्रकार है:

"पिता की ओर से मैं तुम्हारे पास एक सहायक भेजूंगा, सत्य का आत्मा, जिसका उद्गम पिता से है। जब वह सहायक आ जायेगा तब वह मेरे विषय में गवाही देगा। और तुम भी मेरे विषय में गवाही दोगे क्योंकि तुम आरम्भ से मेरे साथ हो।"
  • "मैं तुम्हें सच्चाई बताता हूँ, यह तुम्हारे लिए लाभदायक है कि मैं तुम्हें छोड़कर जा रहा हूँ। यदि मैं न जाऊँ तो वह सहायक तुम्हारे पास नहीं आएगा। पर यदि मैं जाऊँ तो उसे तुम्हारे पास भेज दूंगा। जब वह आ जायेगा तो वह संसार को पाप, धार्मिकता और न्याय के विषय में दोषी ठहराएगा। पाप के विषय में इसलिए कि इस संसार के लोगों ने मुझ पर विश्वास नहीं किया। धार्मिकता के विषय में इसलिए कि मैं पिता के पास जा रहा हूँ और तुम मुझे फिर न देखोगे। न्याय के विषय में इसलिए कि इस संसार का शासक दोषी ठहराया गया है।"

  • "मुझे तुमसे और भी बहुत बातें कहनी है, पर अभी तुम उन्हें सहन नहीं कर सकोगे। जब वह सत्य का आत्मा आएगा तब वह सम्पूर्ण सत्य में तुम्हारा मार्ग दर्शन करेगा। वह अपनी ओर से कुछ नहीं कहेगा। जो बातें वह सुनेगा, वही कहेगा। वह होने वाली घटनाओं के विषय में तुम्हें बताएगा। वह मेरी महिमा करेगा क्योंकि वह मेरी बातें ग्रहण करेगा और तुम्हें बताएगा। जो पिता का है वह मेरा है, इसलिए मैंने कहा कि आत्मा मेरी बातें ग्रहण करेगा और तुम्हें बताएगा।"

  • इस बात को संकोचवश मैं आज तक नहीं कर सका और यहीं अध्यात्म जगत् में कार्य करना आरम्भ कर दिया। परन्तु मुझे बताया गया था कि मुझे यहाँ सफलता नहीं मिलेगी। उसी छोटी पुस्तक यूहन्ना में इस संदर्भ में यीशु ने स्वयं एक बात कही थी, उसकी तरफ इंगित करके मुझे समझाया गया। "यीशु ने स्वयं यह साक्षी दी थी कि एक नबी का आदर उसकी मातृभूमि में नहीं होता।" परन्तु मैंने हठधर्मिता से यही काम प्रारम्भ कर दिया। पूरे प्रयास के बावजूद मैं सफल नहीं हो सका। मुझे असफलता की आशंका पहले से थी, और इस संदर्भ में बता भी दिया गया था, परन्तु संकोचवश मैं इसे किसी के सामने प्रकट नहीं कर सका।

  • समय बहुत थोड़ा है और कार्यभार बहुत अधिक सौंपा गया है। यह सार्वभौम कार्य है। मानव मात्र का इससे सम्बन्ध है। केवल भारत ही इसका अधिकारी नहीं हैं, मेरा सोचना गलत था, असफलता मिलना गलत नहीं हैं। मैं तथा मुझसे आध्यात्मिक दृष्टि से जुड़े लोग जिस आनन्द की अनुभूति करते हैं, उसके बारे में यीशु के शिष्य यूहन्ना ने कहा है :- "यह एक आन्तरिक आनन्द है, जो सभी सच्चे विश्वासियों के हृदय में आता है। यह आनन्द हृदय में बना रहता है, सांसारिक आनन्द के समान यह आता जाता नहीं हैं, उसका आनन्द पूर्ण है, वह हमारे हृदयों के कटोरों को आनन्द से तब तक भरता है, जब तक उमड़ न जाय।"

  • उपर्युक्त तथ्य मुझे बहुत प्रभावित कर रहे हैं। भौतिक जगत् में इस एक रास्ते के अलावा सभी रास्ते बन्द कर दिये हैं। अतः अब मैंने संकोच और शर्म को छोड़कर संसार के सामने स्पष्ट रूप से प्रकट होने का फैसला कर लिया है। वह परमसत्ता चाहती है तो मैं उसे कैसे रोक सकता हूँ? मेरी हठधर्मिता चलेगी नहीं।अतः मैं पूर्ण रूप से समर्पित होकर हर आदेश का पालन करने को तैयार हो गया हूँ। अब यथा शीघ्र पश्चिमी जगत् के देशों से सम्पर्क करने के प्रयास करूंगा। मुझे समझाया जा रहा है कि संसार के लोग बड़ी ही उत्सुकता से इन्तजार कर रहे हैं। मात्र संदेश पहुँचने की देर है। इसका आभास तो लोगों को बहुत पहले से होने लगा था। संसार के कई संत इस संदर्भ में भविष्यवाणी कर चुके हैं।

संसार के साथ-साथ मैं चाहता हूँ कि इसका प्रचार-प्रसार भारत में भी हो क्योंकि मेरा शरीर इसी पवित्र मिट्टी से बना हैं। मुझे महर्षि अरविन्द की यह भविष्यवाणी बहुत अधिक प्रभावित कर रही है "क्रम विकास कदम जो मनुष्य को एक उच्चतर और विशालतर चेतना में उठा ले जाएगा। उन समस्याओं का हल करना प्रारम्भ कर देगा, जिन समस्याओं ने मनुष्य को तभी से हैरान और परेशान कर रखा है, जब से वैयक्तिकपूर्णता और पूर्ण समाज के विषय में सोचना विचारना शुरू किया था।
  • इसका प्रारम्भ भारत ही कर सकता है और यद्यपि इसका क्षेत्रफल सार्वभौम होगा तथापि केन्द्रीय आन्दोलन भारत ही करेगा।" इसके अतिरिक्त श्री अरविन्द की यह भविष्यवाणी बिल्कुल सत्य है।

  • "24 नवम्बर 1926 को श्रीकृष्ण का पृथ्वी पर अवतरण हुआ था। श्रीकृष्ण अतिमानसिक प्रकाश नहीं हैं। श्रीकृष्ण के अवतरण का अर्थ है अधिमानसिक देव का अवतरण जो जगत् को अतिमानस और आनन्द के लिए तैयार करता है। श्रीकृष्ण आनन्दमय हैं। वे अतिमानस को अपने आनन्द की ओर उद्बुद्ध करके विकास का समर्थन और संचालन करते हैं।"

  • गीता के अक्षय आनन्द को संतों ने 'नाम खुमारी' और 'नाम अमल' की संज्ञा दी है। "मेरे गुरुदेव ने उस "अक्षय आनन्द" को पृथ्वी पर लाकर संसार के प्राणियों में बाँटने का कार्य मुझे सौंपा है। उसको अब मैंने निसंकोच विश्वभर में बाँटने का फैसला कर लिया है।

  • "भारत के निर्धन लोग रोटी कपड़े के चक्कर से निकले तो इस तरफ ध्यान जाए! लम्बी गुलामी ने भी लोगों को भारी गुमराह कर दिया हैं। इस प्रकाश के संसार में फैलते ही विश्व भारत की तरफ आकर्षित होगा और क्रमिक विकास की गति से शीघ्र उन्नति के शिखर पर पहुँच जायेगा क्योंकि ऐसी स्थिति में संसार की सारी शक्तियाँ उत्थान में पूर्ण सहयोग देने लगेंगी।

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