महर्षि अरविन्द और श्री माँ की भविष्यवाणियाँ

श्री महर्षि अरविन्द और श्री माँ द्वारा गुरुदेव के जन्म बारे में की गई भविष्यवाणियाँ पढ़ें

गुरुदेव सियाग के बारे में भविष्यवाणियाँ


24 नवंबर वह ऐतिहासिक दिवस था जिसे आश्रम के इतिहास में माताजी और श्री अरविंद के जन्मदिन के बराबर महत्त्वपूर्ण माना जाता है।

1926 के आरंभ से ही श्री अरविंद ने आश्रम का उत्तरदायित्व माताजी को सौंपना शुरू कर दिया। माताजी बाह्य रूप से आश्रम के संचालन और आंतरिक रूप से साधकों के पथ-प्रदर्शन का काम अपने हाथ में लेने लगीं।

24 नवंबर वह ऐतिहासिक दिवस था जिसे आश्रम के इतिहास में माताजी और श्री अरविंद के जन्मदिन के बराबर महत्त्वपूर्ण माना जाता है। इसका संक्षिप्त-सा वर्णन पुराणी से सुनिये जो स्वयं वहां उपस्थित थे।

  • “एकदम स्तब्ध नीरवता छाई हुई थी… कइयों ने ऊपर से उतरते हुए प्रकाश के सागर को देखा। सभी उपस्थित लोगों ने सिर के ऊपर एक दबाव का अनुभव किया। सारा वातावरण मानों बिजली की ऊर्जा से भरा था … धीमे-धीमे, गौरवमय पग रखती हुई माताजी पहले आयीं और उनके पीछे-पीछे राजोचित गरिमा के साथ श्री अरविंद पधारे… माताजी उनके पास दाहिनी ओर एक छोटेसे मूढ़े पर बैठ गयीं। चारों ओर नीरवता छाई थी, दिव्यता का सागर स्तब्ध खड़ा था। लगभग पैंतालीस मिनट का ध्यान हुआ, उसके बाद एक-एक करके शिष्यों ने माताजी को प्रणाम किया।

  • माताजी और श्री अरविंद दोनों ने उन्हें आशीर्वाद दिया। माताजी के हाथ के पीछे श्री अरविंद का हाथ था, मानों वे माताजी के द्वारा आशीर्वाद दे रहे थे। आशीर्वाद के बाद उसी नीरवता में ध्यान हुआ। नीरव ध्यान और आशीर्वाद के बीच कइयों को स्पष्ट अनुभूतियां हुईं। सब कुछ समाप्त होने पर लोगों ने अनुभव किया कि वे दिव्य स्वप्न से जागे हैं। तब उन्हें इस समारोह के वैभव, उसके काव्य और उसके सौंदर्य का भान हुआ।

  • देखने में तो यही लग रहा था कि इस अवसर पर मुट्ठी भर शिष्य दिव्य गुरु और दिव्य जननी से आशीर्वाद पा रहे थे लेकिन यह उससे कहीं अधिक था। निश्चित रूप से धरती पर एक उच्चतर चेतना का अवतरण हुआ था। उस गहरी नीरवता में एक महान् आध्यात्मिक कार्य के वट-वृक्ष की कोंपलें फूटी थीं। – माताजी और श्री अरविंद उठकर अंदर चले गये और उस नीरवता में ही दत्ता (एक अंग्रेज शिष्या) ने अंतःप्रेरणा में आकर घोषणा की “आज प्रभु भौतिक तत्त्व में अवतरित हुए हैं।"

अक्तूबर 1935 में श्रीअरविंद ने इस अवसर के बारे में लिखा था, “24 नवंबर 1926 के दिन भौतिक में श्रीकृष्ण का अवतरण हुआ था। कृष्ण अतिमानसिक ज्योति नहीं हैं। कृष्ण के अवतरण का मतलब है अधिमानसिक देव का अवतरण जो अपने-आप तो वास्तव में अतिमानसिक नहीं हैं पर अतिमन और आनंद के अवतरण के लिये तैयारी कर रहे हैं। कृष्ण आनंदमय हैं, वे आनंद की ओर अभिमुख विकास को अधिमानस के द्वारा सहारा देते हैं।"

समर्थ सदगुरुदेव श्री रामलाल जी सियाग का अवतरण (जन्म) 24 नवम्बर, 1926 को भारत के राजस्थान राज्य के उत्तर की तरफ स्थित बीकानेर जिले के पलाना ग्राम में हुआ।

महर्षि ने इस संदर्भ में कहा था कि मानव रूप में प्रकट हुई वह शक्ति अपने क्रमिक विकास के साथ अतिशीघ्र विश्व के सामने प्रकट हो जाएगी। इस भूमण्डल पर वह शक्ति अपना कार्य शुरू कर चुकी है।


महर्षि अरविन्द के बारे में


अरविंद घोष एक बहुमुखी प्रतिभा के धनी व्यक्ति थे। वह एक स्वतंत्रता सेनानी, कवि, प्रकांड विद्वान, योगी और महान दार्शनिक थे। उन्होंने अपना जीवन भारत को आजादी दिलाने और पृथ्वी पर जीवन के विकास की दिशा में समर्पित कर दिया।


महर्षि अरविन्द की लघु जीवनी:

  • अरविंद के पिता का नाम केडी घोष और माता का नाम स्वमलता था। अरविन्द घोष एक प्रभावशाली वंश से सम्बन्ध रखते थे। उनका जन्म 15 अगस्त, 1872 में हुआ। राज नारायण बोस, बंगाली साहित्य के एक जाने माने नेता, श्री अरविंद के नाना थे। अरविंद घोष ना केवल आध्यात्मिक प्रकृति के धनी थे बल्कि उनकी उच्च साहित्यिक क्षमता उनकी माँ की शैली की थी। उनके पिता एक डॉक्टर थे।

  • जब अरविन्द घोष पांच साल के थे उन्हें दार्जिलिंग के लोरेटो कान्वेंट स्कूल में भेज दिया गया। दो साल के बाद 1879 में अरविन्द घोष को उनके भाई के साथ उच्च शिक्षा के लिए इंग्लैंड भेज दिया गया। अरविन्द ने अपनी पढाई लंदन के सेंट पॉल से पूरी की। वर्ष 1890 में 18 साल की उम्र में अरविन्द को कैंब्रिज में प्रवेश मिल गया। यहाँ पर उन्होंने स्वयं को यूरोपीय क्लासिक्स के एक छात्र के रूप में प्रतिष्ठित किया। अपने पिता की इच्छा का पालन करने के लिए, उन्होंने कैम्ब्रिज में रहते हुए आईसीएस के लिए आवेदन भी दिया। उन्होंने 1890 में पूरे विश्वास के साथ भारतीय सिविल सेवा परीक्षा उत्तीर्ण की।

  • वर्ष 1893 में अरविन्द घोष भारत वापस लौट आये और बड़ौदा के एक राजकीय विद्यालय में उपप्रधानाचार्य बन गए। उन्हें 750 रुपये वेतन दिया गया। उन्हें बड़ौदा के महाराजा द्वारा बहुत सम्मान मिला। अरविन्द घोष को ग्रीक और लैटिन भाषाओ में निपुणता प्राप्त थी। 1893 से 1906 तक उन्होंने संस्कृत, बंगाली साहित्य, दर्शनशास्त्र और राजनीति विज्ञान का विस्तृत रूप से अध्यन किया।

1906 में बंगाल के विभाजन के बाद उन्होंने अपनी नौकरी से इस्तीफा दे दिया और 150 रूपए के वेतन पर बंगाल नेशनल कॉलेज में शामिल हो गए। इसके बाद वो क्रांतिकारी आंदोलन में तेज़ी से सक्रीय हो गए। अरविन्द घोष ने 1908 से भारत के स्वतंत्रता संग्राम में एक प्रमुख भूमिका निभाई। अरविंद घोष भारत की राजनीति को जागृति करने वाले मार्गदर्शकों में से एक थे। उन्होंने अंग्रेजी दैनिक ‘वन्दे मातरम्’ पत्रिका का प्रकाशन किया और निर्भीक होकर तीक्ष्ण सम्पादकीय लेख लिखे। उन्होंने ब्रिटिश सामान, ब्रिटिश न्यायलय और सभी ब्रिटिश चीजों के बहिष्कार का खुला समर्थन किया । उन्होंने लोगों से सत्याग्रह के लिए तैयार रहने के लिए कहा ।
  • प्रसिद्ध अलीपुर बम केस अरविंद घोष के जीवन में एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुआ। एक वर्ष के लिए अरविन्द अलीपुर सेंट्रल जेल के एकान्त कारावास में एक विचाराधीन कैदी रहे। वह अलीपुर जेल की एक गंदे सेल में थे जब उन्होंने अपने भविष्य के जीवन का सपना देखा जहाँ भगवान ने उन्हें एक दिव्य मिशन पर जाने का आदेश दिया। उन्होंने क़ैद की इस अवधि का उपयोग गीता की शिक्षाओं का गहन अध्ययन और अभ्यास के लिए किया। चित्तरंजन दास ने श्री अरविन्द का बचाव किया और एक यादगार सुनवाई के बाद उन्हें बरी कर दिया गया।

  • अपने कारावास के दौरान अरविंद घोष ने योग और ध्यान में अपनी रुचि को विकसित किया। अपनी रिहाई के बाद उन्होंने प्राणायाम और ध्यान का अभ्यास शुरू कर दिया 1910 में श्री अरविंद घोष कलकत्ता छोड़ पांडिचेरी में बस गए। पांडिचेरी में वह अपने एक दोस्त के घर पर रुके। शुरुआत में वह, अपने चार-पांच साथियों के साथ रहे। फिर धीरे-धीरे सदस्यों की संख्या में वृद्धि हुई और एक आश्रम की स्थापना हुई ।

श्रीअरविंद धरती पर कोई शिक्षा या मत लेकर पुरानी शिक्षाओं या मतों के साथ प्रतियोगिता करने नहीं आये। वे आये हैं अतीत को पार करने, ठोस रूप से नजदीक आते हुए अनिवार्य भविष्य का मार्ग खोलने।

श्री माँ

- श्री अरविंद को अगर कोई जानता है तो वह हैं ‘श्रीमाँ’। श्रीमाँ के अनुसार श्रीअरविंद धरती के लिये दिव्य भविष्य का आश्वासन लाये हैं और धरती को ज्योतिर्मय भविष्य के लिये तैयार करने आये हैं।
  • पांडिचेरी में चार साल तक योग पर अपना ध्यान केंद्रित करने के बाद वर्ष 1914 में श्री अरविन्द ने आर्य नामक दार्शनिक मासिक पत्रिका का शुभारम्भ किया। अगले साढ़े 6 सालों तक यह उनकी सबसे महत्वपूर्ण रचनाओं में से ज्यादातर के लिए एक माध्यम बन गया जो कि एक धारावाहिक के रूप में आयीं। इनमें गीता का वर्णन, वेदों का रहस्य, उपनिषद, द रेनेसां इन इंडिया, वार एंड सेल्फ डिटरमिनेसन, द ह्यूमन साइकिल, द आइडियल ऑफ़ ह्यूमन यूनिटी और द फ्यूचर पोएट्री शामिल थीं। 1926 में श्री अरविन्द सार्वजनिक जीवन से सेवानिवृत्त हो गए।

  • श्री अरविंद के दर्शनशास्त्र तथ्य, अनुभव, व्यक्तिगत आभाष और एकद्रष्टाया ऋषि की दृष्टि होने पर आधारित है। अरबिंदो की आध्यात्मिकता अभिन्नताओं के कारण एक जुट थी। श्री अरविंद का लक्ष्य केवल किसी व्यक्ति को उन बेड़ियों से जो उन्हें जकड़े हुए थीं और इस के एहसास से मुक्त करना नहीं था बल्कि दुनिया में परमात्मा की इच्छा को सम्पन्न करना, एक आध्यात्मिक परिवर्तन लागू करना और मानसिक, मार्मिक, भौतिक जगत और मानव जीवन में दिव्यशक्ति और दिव्य आत्मा को लाना था।


श्री अरविन्द का देहांत 5 दिसंबर 1950 को पांडिचेरी में 78 वर्ष की आयु में हो गया।


उत्तरपाड़ा भाषण


(अलीपुर जेल से छूटने के बाद श्री अरविन्द का पहला महत्त्वपूर्ण भाषण 30 मई 1909 को उत्तरपाड़ा (पश्चिम बंगाल) में हुआ। इसमें उन्होंने अपने जेल-जीवन का आध्यात्मिक अनुभव सुनाया और साथ ही देश को सच्ची राष्ट्रीयता का संदेश दिया। इसमें उन्होंने बताया है कि सच्चा हिन्दू धर्म, सच्चा सनातन धर्म क्या है? और आज के संसार को उसकी क्यों जरूरत है! उनका यह भाषण उनके जीवन में एक नया मोड़ का परिचय देता है।)

  • जब मुझे आपकी ‘सभा’ के इस वार्षिक अधिवेशन में बोलने के लिए कहा गया तो मैंने यही सोचा था कि आज के लिए जो विषय चुना गया है उसी पर, अर्थात् हिंदू धर्म पर कुछ कहूँगा। मैं नहीं जानता था कि उस इच्छा को, मैं पूरा कर सकूँगा या नहीं; क्योंकि जैसे ही मैं यहाँ आकर बैठा, मेरे मन में एक संदेश आया और यह संदेश मुझे आपको और सारे भारत राष्ट्र को सुनाना है। यह वाणी मुझे पहले-पहल जेल में सुनायी दी थी और उसे अपने देशवासियों को सुनाने के लिए, मैं जेल से बाहर आया हूँ।

  • पिछली बार जब मैं यहाँ आया था, उसे एक वर्ष से ऊपर हो चुका है। उस बार मैं अकेला न था; तब मेरे साथ ही बैठे थे राष्ट्रीयता के एक परम शक्तिमान् दूत। उन दिनों वे उस एकांतवास से लौटकर आये थे जहाँ उन्हें भगवान् ने इसलिए भेजा था कि वे अपनी काल कोठरी की शांति और निर्जनता में उस वाणी को सुन सकें जो उन्हें सुनानी थी।

  • उस समय आप सैकड़ों की संख्या में उन्हीं का स्वागत करने आये थे। आज वे हमसे बहुत दूर हैं, हजारों मील के फासले पर हैं। दूसरे लोग भी, जिन्हें मैं अपने साथ काम करते हुए पाता था, आज अनुपस्थित हैं। देश पर जो तूफान आया था, उसने उन्हें दूर-दूर बिखेर दिया है। इस बार मैं एक वर्ष निर्जनवास में बिताकर आया हूँ और अब बाहर आकर देखता हूँ कि सब कुछ बदल गया है। जो सदा मेरे साथ बैठते थे, जो सदा मेरे काम में सहयोग दिया करते थे, आज बर्मा में कैद हैं; दूसरे उत्तर में नजरबंद होकर सड़ रहे हैं।

  • जब मैं बाहर आया तो मैंने अपने चारों ओर देखा, जिनसे सलाह और प्रेरणा पाने का अभ्यास था उन्हें खोजा। वे मुझे नहीं मिले। इतना ही नहीं, जब मैं जेल गया था तो सारा देश वंदे मातरम् की ध्वनि से गूँज रहा था, वह एक राष्ट्र बनने की आशा से जीवित था। यह उन करोड़ों मनुष्यों की आशा थी जो गिरी हुई दशा से अभी-अभी ऊपर उठे थे। जब मैं जेल से बाहर आया तो मैंने इस ध्वनि को सुनने की कोशिश की, किंतु इसके स्थान पर छायी हुई थी निस्तब्धता। देश में सन्नाटा था और लोग हक्के-बक्के से दिखाई दिये; क्योंकि जहाँ पहले हमारे सामने भविष्य की कल्पना से भरा ईश्वर का उज्ज्वल स्वर्ग था वहाँ हमारे सिर पर धुसर आकाश दिखाई दिया, जिससे मानवीय वज्र और बिजली की वर्षा हो रही थी। किसी को यह न दिखाई देता था कि किस ओर चलना चाहिए, और चारों ओर से यही प्रश्न उठ रहा था,‘‘अब क्या करें? हम क्या कर सकते हैं?’’ मुझे भी पता न था, किस ओर चलना चाहिए और अब क्या किया जा सकता है।

लेकिन एक बात मैं जानता था, ईश्वर की जिस महान् शक्ति ने उस ध्वनि को जगाया था, उस आशा का संचार किया था, उसी शक्ति ने यह सन्नाटा भेजा है। जो ईश्वर उस कोलाहल और आंदोलन में थे, वे ही इस विश्राम और निस्तब्धता में भी हैं। ईश्वर ने इसे भेजा है ताकि राष्ट्र क्षणभर के लिए रुककर अपने अंदर खोजे और जाने कि उनकी इच्छा क्या है?

महर्षि अरविन्द

  • इस निस्तब्ध्ता से मैं निरुत्साहित नहीं हुआ हूँ, क्योंकि कारागार में इस निस्तब्धता के साथ मेरा परिचय हो चुका है और मैं जानता हूँ कि मैंने एक वर्ष की लंबी कैद के विश्राम और निस्तब्धता में ही यह पाठ पढ़ा है। जब विपिनचन्द्र पाल जेल से बाहर आये तो वे एक संदेश लेकर आये थे और वह प्रेरणा से मिला हुआ संदेश था। उन्होंने यहाँ जो वक्तृता दी थी, वह मुझे याद है। उस वक्तृता का मर्म और अभिप्राय उतना राजनीतिक नहीं था जितना धार्मिक था।

  • उन्होंने उस समय जेल के अंदर मिली हुई अनुभूति की, हम सबके अंदर जो भगवान् हैं उनकी, राष्ट्र के अंदर जो परमेश्वर हैं उनकी बात की थी। अपने बाद के व्याख्यानों में भी उन्होंने कहा था कि इस आंदोलन में जो शक्ति काम कर रही है वह सामान्य शक्ति की अपेक्षा महान् है। और इसका हेतु भी साधारण हेतु से कहीं बढ़कर है। आज भी मैं आपसे फिर मिल रहा हूँ। मैं भी जेल से बाहर आया हूँ और इस बार भी आप ही, इस उत्तरपाड़ा के निवासी ही, मेरा सबसे पहले स्वागत कर रहे हैं। किसी राजनीतिक सभा में नहीं, बल्कि उस समिति की सभा में जिसका उद्देश्य है ‘धर्म की रक्षा’। जो संदेश विपिनचन्द्र पाल ने बक्सर जेल में पाया था, वही भगवान् ने मुझे अलीपुर जेल में दिया। वह ज्ञान भगवान् ने मुझे बारह महीने के कारावास में दिन-प्रतिदिन दिया और आदेश दिया है कि अब, जब मैं जेल से बाहर आ गया हूँ तो आपसे उसकी बात करूँ।

  • मैं जानता था कि मैं जेल से बाहर निकल आऊँगा। यह वर्ष भर की नजरबंदी केवल एक वर्ष के एकांतवास और प्रशिक्षण के लिये थी। भला किसी के लिये यह कैसे संभव होता कि मुझे जेल में उतने दिनों से अधिक रोक रखता जितने दिन भगवान् का हेतु सिद्ध करने के लिए आवश्यक थे? भगवान् ने कहने के लिए एक संदेश दिया है और करने के लिये एक काम। मैं यह जानता था कि जब तक यह संदेश सुना नहीं दिया जाता तब तक कोई मानव शक्ति मुझे चुप नहीं कर सकती, जब तक वह काम नहीं हो जाता तब तक कोई मानव शक्ति मुझे चुप नहीं कर सकती, जब तक वह काम नहीं हो जाता तब तक कोई मानव शक्ति भगवान् के यंत्र को रोक नहीं सकती, फिर वह यंत्र चाहे कितना ही दुर्बल, कितना ही सामान्य क्यों नहीं हो? अब जब कि मैं बाहर आ गया हूँ, इन चंद मिनटों में ही मुझे एक ऐसी वाणी सुझायी गयी है जिसे व्यक्त करने की मेरी कोई इच्छा न थी। मेरे मन में जो कुछ था उसे भगवान् ने निकालकर फेंक दिया है और मैं जो कुछ बोल रहा हूँ, वह एक प्रेरणा के वश होकर, बाध्य होकर बोल रहा हूँ।

  • जब मुझे गिरफ्तार करके जल्दी-जल्दी लालबाजार की हाजत में पहुँचाया गया तो मेरी श्रद्धा क्षणभर के लिए डिग गयी थी, क्योंकि उस समय मैं भगवान् की इच्छा के मर्म को नहीं जान पाया था। इसलिए मैं क्षणभर के लिए विचलित हो गया और अपने हृदय में भगवान् को पुकारकर कहने लगा

‘‘यह क्या हुआ? मेरा यह विश्वास था कि मुझे अपने देशवासियों के लिए विशेष काम करना है। और जब तक वह काम पूरा नहीं हो जाता तब तक तुम मेरी रक्षा करोगे। तब फिर मैं यहाँ क्यों हूँ और वह भी इस प्रकार के अभियोग में?’’ एक दिन बीता, दो दिन बीते, तीन दिन बीत गये, तब मेरे अंदर से एक आवाज आयी, ‘‘ठहरो और देखो कि क्या होता है।’’ तब मैं शांत हो गया और प्रतीक्षा करने लगा ।

महर्षि अरविन्द

  • मैं लालबाजार थाने से अलीपुर जेल में ले जाया गया और वहाँ मुझे एक महीने के लिए मनुष्यों से दूर एक निर्जन कालकोठरी में रखा गया। वहाँ मैं अपने अंदर विद्यमान भगवान् की वाणी सुनने के लिए, यह जानने के लिए कि वे मुझसे क्या कहना चाहते हैं और यह सीखने के लिए कि मुझे क्या करना होगा, रात-दिन प्रतीक्षा करने लगा। इस एकांतवास में मुझे सबसे पहली अनुभूति हुई, पहली शिक्षा मिली। उस समय मुझे याद आया कि गिरफ्तारी से एक महीना या उससे भी कुछ अधिक पहले मुझे यह आदेश मिला था कि मैं अपने सारे कर्म छोड़कर एकांत में चला जाऊँ और अपने अंदर खोज करूँ ताकि भगवान् के साथ अधिक संपर्क में आ सकूँ।

  • मैं दुर्बल था और उस आदेश को स्वीकार न कर सका। मुझे अपना कार्य बहुत प्रिय था और हृदय में इस बात का अभिमान था कि यदि मैं न रहूँ तो इस काम को धक्का पहुँचेगा, इतना ही नहीं शायद असफल और बंद भी हो जायेगा; इसलिए मुझे काम नहीं छोड़ना चाहिए। ऐसा बोध हुआ कि वे मुझसे फिर बोले और उन्होंने कहा कि, ‘‘जिन बंधनों को तोड़ने की शक्ति तुममें नहीं थी, उन्हें तुम्हारे लिए मैंने तोड़ दिया है क्योंकि मेरी यह इच्छा नहीं है और न थी ही कि वे कार्य जारी रहें। तुम्हारे करने के लिए मैंने दूसरा काम चुना है और उसी के लिए मैं तुम्हें यहाँ लाया हूँ ताकि मैं तुम्हें वह बात सिखा दूँ जिसे तुम स्वयं नहीं सीख सके और तुम्हें अपने काम के लिए तैयार कर लूंँ।’’

  • इसके बाद भगवान् ने मेरे हाथों में गीता रख दी। मेरे अंदर उनकी शक्ति प्रवेश कर गयी और मैं गीता की साधना करने में समर्थ हुआ। मुझे केवल बुद्धि द्वारा ही नहीं, बल्कि अनुभूति द्वारा भी जानना था कि श्री कृष्ण की अर्जुन से क्या माँग थी और वे उन लोगों से क्या माँगते हैं, जो उनका कार्य करने की इच्छा रखते हैं, अर्थात् घृणा और कामना-वासना से मुक्त होना होगा, फल की इच्छा न रखकर भगवान् के लिए कर्म करना होगा, अपनी इच्छा का त्याग करना होगा, और निश्चेष्ट तथा सच्चा यंत्र बनकर भगवान् के हाथों में रहना होगा, ऊँच और नीच, मित्र और शत्रु, सफलता और विफलता के प्रति समदृष्टि रखनी होगी और यह सब होते हुए भी उनके कार्य में कोई अवहेलना न आने पाए।

  • मैंने यह जाना कि हिंदू धर्म का मतलब क्या है? बहुधा हम हिंदू धर्म, सनातन धर्म की बातें करते हैं, किंतु वास्तव में हममें से कम ही लोग यह जानते हैं कि यह धर्म क्या है? दूसरे धर्म मुख्य रूप से विश्वास, व्रत, दीक्षा और मान्यता को महत्त्व देते हैं, किंतु सनातन धर्म तो स्वयं जीवन है, यह इतनी विश्वास करने की चीज नहीं है, जितनी जीवन में उतारने की चीज हैं। यही वह धर्म है जिसे मानव जाति के कल्याण के लिए प्राचीन काल से इस प्रायद्वीप के एकांतवास में संजोया जाता रहा है। यही धर्म देने के लिए भारत उठ रहा हैं।

भारतवर्ष, दूसरे देशों की तरह, अपने लिए ही या मजबूत होकर दूसरों को कुचलने के लिये नहीं उठ रहा। वह उठ रहा है सारे संसार पर वह सनातन ज्योति बिखरने के लिये, जो उसे सौंपी गयी है। भारत का जीवन सदा ही मानवजाति के लिये रहा है, उसे अपने लिये नहीं बल्कि मानव जाति के लिये महान् होना है।

महर्षि अरविन्द

  • अतः भगवान् ने मुझे दूसरी वस्तु दिखायी-उन्होंने मुझे हिन्दू धर्म के मूल सत्य का साक्षात्कार करा दिया। उन्होंने मेरे जेलरों के दिल को मेरी ओर मोड़ दिया, उन्होंने जेल के प्रधान अंग्रेज अधिकारी से कहा कि ‘‘ये कालकोठरी में बहुत कष्ट पा रहे हैं; इन्हें कम-से- कम सुबह-शाम आधा-आधा घंटा कोठरी के बाहर टहलने की अनुमति दे दी जाये।’’ यह अनुमति मिल गयी और जब मैं टहल रहा था तो भगवान् की शक्ति ने फिर मेरे अंदर प्रवेश किया। मैंने उस जेल की ओर दृष्टि डाली जो मुझे और लोगों से अलग किये हुए थी। मैंने देखा कि अब मैं उसकी ऊँची दीवारों के अंदर बंदी नहीं हूँ; मुझे घेरे हुए थे ‘वासुदेव’।

  • मैं अपनी कालकोठरी के सामने के पेड़ की शाखाओं के नीचे टहल रहा था, परन्तु वहाँ पेड़ न था, मुझे प्रतीत हुआ कि वे वासुदेव हैं; मैंने देखा कि स्वयं श्रीकृष्ण खड़े हैं; और मेरे ऊपर छाया किये हुए हैं। मैंने अपनी कालकोठरी के सींखचों की ओर देखा, उस जाली की ओर देखा, जो दरवाजे का काम कर रही थी, वहाँ भी वासुदेव दिखायी दिये। स्वयं नारायण संतरी बनकर पहरा दे रहे थे। जब मैं उन मोटे कंबलों पर लेटा जो मुझे पलंग की जगह मिले थे तो मैंने यह अनुभव किया कि मेरे सखा और प्रेमी श्री कृष्ण मुझे अपनी बाहुओं में लिये हुए हैं। मुझे उन्होंने जो गहरी दृष्टि दी थी उसका यह पहला प्रयोग था।

  • मैंने जेल के कैदियों-चोरों, हत्यारों और बदमाशों-को देखा और मुझे वासुदेव दिखायी पड़े, उन अंधेरे में पड़ी आत्माओं और बुरी तरह काम में लाये गये शरीरों में मुझे नारायण मिले। उन चोरों और डाकुओं में बहुत से ऐसे थे जिन्होंने अपनी सहानुभूति और दया के द्वारा मुझे लज्जित कर दिया, इन विपरीत परिस्थितियों में मानवता विजयी हुई थी। इनमें से एक आदमी को मैंने विशेष रूप से देखा जो मुझे एक संत मालूम हुआ। वह हमारे देश का एक किसान था, जो लिखना-पढ़ना नहीं जानता था, जिसे तथाकथित डकैती के अभियोग में दस वर्ष का कठोर दंड मिला था। यह उनमें से एक व्यक्ति था जिन्हे हम वर्ग के मिथ्याभिमान में आकर ‘‘छोटा लोक’’ (नीच) कहा करते हैं। फिर एक बार भगवान् मुझसे बोले, उन्होंने कहा ‘‘अपना कुछ थोड़ा-सा काम करने के लिये मैंने तुम्हें जिनके बीच भेजा है, उन लोगों को देखो। जिस जाति को मैं ऊपर उठा रहा हूँ उसका स्वरूप यही है और इसी कारण मैं उसे ऊपर उठा रहा हूँ।’’

जब छोटी अदालत में मुकदमा शुरू हुआ और हम लोग न्यायाधीश के सामने खड़े किये गये तो वहाँ भी मेरी अंतर्दृष्टि मेरे साथ थी। भगवान् ने मुझसे कहा,‘‘जब तुम जेल में डाले गये थे तो क्या तुम्हारा हृदय हताश नहीं हुआ था, क्या तुमने मुझे पुकार कर यह नहीं कहा था-कहाँ? तुम्हारी रक्षा कहाँ है? लो, अब न्यायाधीश की ओर देखो, सरकारी वकील की ओर देखो।’’ मैंने देखा कि अदालत की कुर्सी पर न्यायाधीश नहीं, स्वयं वासुदेव नारायण बैठे थे। अब मैंने सरकारी वकील की ओर देखा, पर वहाँ कोई सरकारी वकील नहीं दिखायी दिया, वहाँ तो श्रीकृष्ण बैठे मुस्करा रहे थे, मेरे सखा, मेरे प्रेमी। उन्होंने कहा,‘‘अब डरते हो? मैं सभी मनुष्यों में विद्यमान हूँ और उनके सभी कर्मों और शब्दों पर राज करता हूँ।

महर्षि अरविन्द

मेरा संरक्षण अब भी तुम्हारे साथ है, और तुम्हें डरना नहीं चाहिये। तुम्हारे विरूद्ध जो यह मुकदमा चलाया गया है, उसे मेरे हाथों में सौंप दो। यह तुम्हारे लिये नहीं है। मैं तुम्हें यहाँ मुकदमें के लिए नहीं बल्कि किसी और काम के लिये लाया हूँ। यह तो मेरे काम का एक साधन मात्र है, इससे अधिक कुछ नहीं।’’ इसके बाद जब सेशन जज की अदालत में विचार आरंभ हुआ तो मैं अपने वकील के लिये ऐसी बहुत सी हिदायतें लिखने लगा कि गवाही में मेरे विरुद्ध कही गयी बातों में से कौन सी बातें गलत हैं और किन किन पर गवाहों से जिरह की जा सकती है। तब एक ऐसी घटना घटी जिसकी मैं आशा नहीं करता था। मेरे मुकदमे की पैरवी के लिये जो प्रबंध किया गया था, वह एकाएक बदल गया और मेरी सफाई के लिये एक दूसरे ही वकील खड़े हुए। वे अप्रत्याशित रूप से आ गये, वे मेरे एक मित्र थे किंतु मैं नहीं जानता था कि वे आयेंगे। आप सभी ने उनका नाम सुना है, जिन्होंने मन से सभी विचार निकाल बाहर किये और इस मुकदमे के सिवाय सारी वकालत बंद कर दी, जिन्होंने महीनों लगातार आधी आधी रात तक जगकर मुझे बचाने के लिये अपना स्वास्थ्य बिगाड़ लिया-वे हैं श्री चितरंजन दास देशबन्धु।

  • जब मैंने उन्हें देखा तो मुझे संतोष हुआ फिर भी मैं समझता था कि हिदायतें लिखनी जरूरी हैं। इसके बाद यह विचार भी हटा दिया गया और मेरे अंदर से आवाज आयी, ‘‘यही वह आदमी है जो तुम्हारे पैरों के चारों ओर फैले जाल से तुम्हें बाहर निकालेगा। तुम इन कागजों को अलग धर दो। इन्हें तुम हिदायते नहीं दोगे, मैं दूँगा।’’ उस समय से इस मुकदमे के संबध में मैंने अपनी ओर से अपने वकील से एक शब्द भी नहीं कहा, कोई हिदायत नहीं दी और यदि कभी मुझसे कोई सवाल पूछा गया तो मैंने सदा यही देखा कि मेरे उत्तर से मुकद्दमे को कोई मदद नहीं मिली। मैंने मुकदमा उन्हें सौंप दिया और उन्होंने पूरी तरह उसे अपने हाथों में ले लिया, और उसका परिणाम आप जानते ही हैं।

मैं सदा यह जानता था कि मेरे संबंध में भगवान् की क्या इच्छा है, क्योंकि मुझे बार बार यह वाणी सुनायी पड़ती थी, मेरे अंदर से सदा यह आवाज आया करती थी, ‘‘मैं रास्ता दिखा रहा हूँ, इसलिए डरो मत। मैं तुम्हें जिस काम के लिये जेल में लाया हूँ,अपने उस काम की ओर मुड़ो और जब तुम जेल से बाहर निकलो तो यह याद रखना-कभी डरना मत, कभी हिचकिचाना मत। याद रखो, यह सब मैं कर रहा हूँ और कोई नहीं ।

महर्षि अरविन्द

  • अतः चाहे जितने बादल घिरे, चाहे जितने खतरे और दुःख कष्ट आये, कठिनाइयाँ हो, चाहे जितनी असंभवताएँ आयें, कुछ भी असभंव नहीं है, कुछ भी कठिन नहीं है। मैं इस देश और उसके उत्थान में हूँ, मैं वासुदेव हूँ, मैं नारायण हूँ। जो कुछ मेरी इच्छा होगी वही होगा, दूसरों की इच्छा से नहीं। मैं जिस चीज को लाना चाहता हूँ, उसे कोई मानव शक्ति रोक नहीं सकती ।’’

  • इस बीच वे मुझे उस एकांत कालकोठरी से बाहर ले आये और मुझे उन लोगों के साथ रख दिया जिन पर मेरे साथ ही अभियोग चल रहा था। आज आपने मेरे आत्म-त्याग और देश प्रेम के बारे में बहुत कुछ कहा है। मैं जब से जेल से निकला हूँ तब से इसी प्रकार की बातें सुनता आ रहा हूँ किंतु ऐसी बातें सुनने से मुझे लज्जा आती है, मेरे अंदर एक तरह की वेदना होती है क्योंकि मैं अपनी दुर्बलता जानता हूँ, मैं अपने दोषों और त्रुटियों का शिकार हूँ। मैं इन बातों के बारे में पहले भी अंधा न था और जब मेरे एकांतवास में ये सब की सब मेरे विरुद्ध खड़ी हो गयीं तो मैंने इनका पूरी तरह अनुभव किया। तब मुझे मालूम हुआ कि मनुष्य के नाते मैं दुर्बलताओं का एक ढेर हूँ, दोष भरा एक अपूर्ण यंत्र हूँ, मुझमें ताकत तभी आती है, जब कोई उच्चतर शक्ति मेरे अंदर आ जाये।

  • अब मैं उन युवकों के बीच में आया और मैंने देखा कि उनमें से बहुतों में एक प्रचण्ड साहस और शक्ति है अपने को मिटा देने की और उनकी तुलना में, मैं कुछ भी नहीं हूँ। इनमें से एक-दो ऐसे थे जो केवल बल और चरित्र में मुझसे बढ़कर नहीं थे-ऐसे तो बहुत थे-बल्कि मैं जिस बुद्धि की योग्यता का अभिमान रखता था, उसमें भी बढे़ हुए थे। भगवान् ने मुझसे फिर कहा, ‘‘यही वह युवक-दल है, वो नया और शक्तिशाली राष्ट्र है जो मेरी आज्ञा से ऊपर उठ रहा है। यह तुमसे अधिक शक्तिशाली हैं। तुम्हें भय किस बात का है? यदि तुम इस काम से हट जाओ या सो जाओ तो भी काम पूरा होगा। कल तुम इस काम से हटा दिये जाओ तो ये युवक तुम्हारे काम को उठा लेंगे और उसे इतने प्रभावशाली ढंग से करेंगे जैसे तुमने भी नहीं किया। तुम्हें इस देश को एक वाणी सुनाने के लिये मुझसे कुछ बल मिला है। यह वाणी इस जाति को ऊपर उठाने में सहायता देगी।’’ यह वह दूसरी बात थी, जो भगवान् ने मुझसे कही।

  • इसके बाद अचानक कुछ हुआ और क्षणभर में मुझे कालकोठरी के एकांतवास में पहुँचा दिया गया।

इस एकांतवास में, मेरे अंदर क्या हुआ, यह कहने की प्रेरणा नहीं हो रही, बस इतना काफी है कि वहाँ दिन-प्रतिदिन भगवान् ने अपने चमत्कार दिखाये और मुझे हिंदू धर्म के वास्तविक सत्य का साक्षात्कार कराया। पहले मेरे अंदर अनेक प्रकार के संदेह थे। मेरा लालन-पालन इंग्लैण्ड में विदेशी भावों और सर्वथा विदेशी वातावरण में हुआ था। एक समय मैं हिंदू धर्म की बहुत-सी बातों को मात्र कल्पना समझता था, यह समझता था कि इसमें बहुत कुछ केवल स्वप्न, भ्रम या माया है। परंतु अब दिन-प्रतिदिन मैंने हिंदू धर्म के सत्य को, अपने मन में, अपने प्राण में और अपने शरीर में अनुभव किया।

महर्षि अरविन्द

  • वे मेरे लिये जीवित अनुभव हो गये और मेरे सामने ऐसी सब बातें प्रकट होने लगीं जिनके बारे में भौतिक विज्ञान कोई व्याख्ता नहीं दे सकता। जब मैं पहले-पहल भगवान् के पास गया तो पूरी तरह भक्तिभाव के साथ नहीं गया था, पूरी तरह ज्ञानी के भाव से भी नहीं गया था। बहुत दिन हुए, स्वदेशी-आंदोलन शुरू होने से पहले और मेरे सार्वजनिक काम में घुसने से कुछ वर्ष पहले बड़ौदा में, मैं उनकी ओर बढ़ा था।

  • उन दिनों जब मैं भगवान् की ओर बढ़ा तो मुझे उन पर जीवंत श्रद्धा न थी। उस समय मेरे अंदर अज्ञेयवादी था, नास्तिक था, संदेहवादी था और मुझे पूरी तरह विश्वास न था कि भगवान् हैं भी! मैं उनकी उपस्थिति का अनुभव नहीं करता था। फिर भी कोई चीज थी जिसने मुझे वेद के सत्य की ओर,गीता के सत्य की ओर, हिंदू धर्म के सत्य की ओर आकर्षित किया। मुझे लगा कि इस योग में कहीं पर कोई महाशक्ति शाली सत्य अवश्य है, वेदांत पर आधारित इस धर्म में कोई परम सत्य अवश्य है। इसलिये जब मैं योग की ओर मुड़ा और योगाभ्यास करके यह जानने का संकल्प किया कि मेरा सोचना सही है या नहीं तो मैंने उसे इस भाव और इस प्रार्थना से शुरू किया, ‘‘हे भगवान् , यदि तुम हो तो तुम मेरे हृदय की बात जानते हो। तुम जानते हो कि मैं मुक्ति नहीं माँगता, मैं ऐसी कोई चीज नहीं माँगता जो दूसरे माँगा करते हैं। मैं केवल इस जाति को ऊपर उठाने की शक्ति माँगता हूँ, मैं केवल यह माँगता हूँ कि मुझे इस देश के लोगों के लिये, जिनसे मैं प्यार करता हूँ जीने और कर्म करने की अनुमति मिले और यह प्रार्थना करता हूँ कि मैं अपना जीवन उनके लिये लगा सकूँ।’’

  • मैंने योगसिद्वि पाने के लिये बहुत दिनों तक प्रयास किया और अंत में किसी हदतक मुझे मिली भी, पर जिस बात के लिये मेरी बहुत अधिक इच्छा थी, उसके संबध में मुझे संतोष नहीं हुआ । तब उस जेल के, उस कालकोठरी के एकांत वास में, मैंने उसके लिये फिर से प्रार्थना की। मैंने कहा, ‘‘मुझे अपना आदेश दो, मैं नहीं जानता कि कौन-सा काम करूँ और कैसे करूँ? मुझे एक संदेश दो।’’

  • इस योगयुक्त अवस्था में मुझे दो संदेश मिले। पहला यह था, ‘‘मैंने तुम्हें एक काम सौंपा है और वह है इस जाति के उत्थान में सहायता देना। शीघ्र ही वह समय आयेगा, जब तुम्हें जेल के बाहर जाना होगा; क्योंकि मैं नहीं चाहता कि इस बार तुम्हें सजा हो या तुम अपना समय, औरों की तरह अपने देश के लिये कष्ट सहते हुए बिताओ। मैनें तुम्हें काम के लिये बुलाया है और यही वह आदेश है जो तुमने माँगा था। मैं तुम्हे आदेश देता हूँ कि जाओ और मेरा काम करो।’’

दूसरा संदेश आया, वह इस प्रकार था, ‘‘इस एक वर्ष के एकांतवास में तुम्हें कुछ दिखाया गया है, वह चीज दिखायी गयी है, जिसके बारे में तुम्हें संदेह था, वह है हिंदू धर्म का सत्य। इसी धर्म को मैं संसार के सामने उठा रहा हूँ, यही वह धर्म है जिसे मैंने ऋषि-मुनियों और अवतारों के द्वारा विकसित किया और पूर्ण बनाया है और अब यह धर्म अन्य राष्ट्रों में मेरा काम करने के लिये बढ़ रहा है। मैं अपनी वाणी का प्रसार करने के लिये इस राष्ट्र को उठा रहा हूँ। यही वह सनातन धर्म है जिसे तुम पहले सचमुच नहीं जानते थे, किंतु जिसे अब मैंने तुम्हारे सामने प्रकट कर दिया है।

महर्षि अरविन्द

  • तुम्हारे अंदर जो नास्तिकता थी, जो संदेह था उनका उत्तर दे दिया है, क्योंकि मैंने अंदर और बाहर, स्थूल और सूक्ष्म, सभी प्रमाण दे दिये हैं और उनसे तुम्हें संतोष हो गया है। जब तुम बाहर निकलो तो सदा राष्ट्र को यह वाणी सुनाना कि वे सनातन धर्म के लिए उठ रहे हैं, वे अपने लिये नहीं बल्कि संसार के लिये उठ रहे हैं। मैं उन्हें संसार की सेवा के लिये स्वतंत्रता दे रहा हूँ। अतएव जब यह कहा जाता है कि भारत वर्ष ऊपर उठेगा तो इसका अर्थ होता है सनातन धर्म ऊपर उठेगा। जब कहा जाता है कि भारतवर्ष महान् होगा तो उसका अर्थ होता है सनातन धर्म महान् होगा। जब कहा जाता है कि भारत वर्ष बढ़ेगा और फैलेगा तो इसका अर्थ होता है सनातन् धर्म बढ़ेगा और संसार पर छा जायेगा।

धर्म के लिये और धर्म के द्वारा ही भारत का अस्तित्व है। धर्म की महिमा बढ़ाने का अर्थ है देश की महिमा बढ़ाना।

महर्षि अरविन्द

  • मैंने तुम्हें दिखा दिया है कि मैं सब जगह हूँ, सभी मनुष्यों और सभी वस्तुओं में हूँ, मैं इस आंदोलन में हूँ और केवल उन्हीं के अंदर कार्य नहीं कर रहा, जो देश के लिये मेहनत कर रहे हैं बल्कि उनके अंदर भी जो उनका विरोध करते और मार्ग में रोड़े अटकाते हैं। मैं प्रत्येक व्यक्ति के अंदर काम कर रहा हूँ और मनुष्य चाहे जो कुछ सोचें या करें, पर वे मेरे हेतु की सहायता करने के अतिरिक्त और कुछ नहीं कर सकते। वे भी मेरा ही काम कर रहे हैं; वे मेरे शत्रु नहीं बल्कि मेरे यंत्र हैं। तुम यह जाने बिना भी कि तुम किस ओर जा रहे हो, अपनी सारी क्रियाओं के द्वारा आगे बढ़ रहे हो। तुम करना चाहते हो कुछ और पर कर बैठते हो कुछ और। तुम एक परिणाम को लक्ष्य बनाते हो और तुम्हारे प्रयास ऐसे हो जाते हैं जो उनसे भिन्न या उल्टा परिणाम लाते हैं। शक्ति का आविर्भाव हुआ है और उसने लोगों मे प्रवेश किया है।

  • मैं एक जमाने से इस उत्थान की तैयारी करता आ रहा हूँ और अब वह समय आ गया है। अब मैं ही इसे पूर्णता की ओर ले जाऊँगा।’’ ‘‘यही वह वाणी है जो मुझे आपको सुनानी है। आपकी सभा का नाम है ‘‘धर्म रक्षिणी सभा’’। अस्तु, धर्म का संरक्षण, दुनिया के सामने हिंदूधर्म का संरक्षण और उत्थान-यही कार्य हमारे सामने है। परंतु हिंदूधर्म क्या है? वह धर्म क्या है जिसे हम सनातन धर्म कहते हैं ? वह हिंदूधर्म इसी नाते है कि हिंदू जाति ने इसको रखा है, क्योंकि समुद्र और हिमालय से घिरे हुए इस प्रायद्वीप के एकांतवास में यह फला फूला है, क्योंकि इस पवित्र और प्राचीन भूमि पर इसकी युगों तक रक्षा करने का भार आर्यजाति को सौंपा गया था। परंतु यह धर्म किसी एक देश की सीमा से घिरा नहीं है, यह संसार के किसी सीमित भाग के साथ विशेष रूप से और सदा के लिये बंधा नहीं है।

जिसे हम हिंदूधर्म कहते हैं वह वास्तव में सनातन धर्म है, क्योंकि यही वह विश्वव्यापी धर्म है जो दूसरे सभी धर्मों का आलिंगन करता है। यदि कोई धर्म विश्वव्यापी न हो तो वह सनातन भी नहीं हो सकता।

महर्षि अरविन्द

  • कोई संकुचित धर्म, सांप्रदायिक धर्म, अनुदार धर्म कुछ काल और किसी मर्यादित हेतु के लिये ही रह सकता है। यही एक ऐसा धर्म है जो अपने अंदर विज्ञान के अविष्कारों और दर्शनशास्त्र के चिंतनों का पूर्वाभास देकर और उन्हें अपने अंदर मिलाकर जड़वाद पर विजय प्राप्त कर सकता है। यही एक धर्म है जो मानवजाति के दिल में यह बात बिठा देता है कि भगवान् हमारे निकट है जिनके द्वारा मनुष्य भगवान् के पास पहुँच सकते हैं।

  • यही एक ऐसा धर्म है जो प्रत्येक क्षण, सभी धर्मों के माने हुए इस सत्य पर जोर देता है कि भगवान् हर आदमी और हर चीज में हैं तथा हम उन्ही में चलते-फिरते हैं और उन्हीं में निवास करते हैं। यही एक ऐसा धर्म है जो इस सत्य को केवल समझने और उस पर विश्वास करने में हमारा सहायक नहीं होता बल्कि अपनी सत्ता के अंग-अंग में इसका अनुभव करने भी हमारी मदद करता है। यही एक धर्म है जो संसार को दिखा देता है कि संसार है वासुदेव की लीला।

  • यही एक ऐसा धर्म है जो हमें यह बताता है कि इस लीला में हम अपनी भूमिका अच्छी से अच्छी तरह कैसे निभा सकते हैं, जो हमें यह दिखाता है कि इसके सूक्ष्म-से-सूक्ष्म नियम क्या है, इसके महान्-से-महान् विधान कौन से हैं? यही एक ऐसा धर्म है जो जीवन की छोटी-से-छोटी बात को भी धर्म से अलग नहीं करता, जो यह जानता है कि अमरता क्या है और जिसने मृत्यु की वास्तविकता को हमारे अंदर से एकदम निकाल दिया है।

  • यही वह वाणी है जो आपको सुनाने के लिये आज मेरी ज़बान पर रख दी गयी थी। मैं जो कुछ कहना चाहता था वह तो मुझसे अलग कर दिया गया है, जो मुझे कहने के लिये दिया गया है उससे अधिक मेरे पास कहने के लिये कुछ नहीं है। जो वाणी मेरे अंदर रख दी गयी थी केवल वही आपको सुना सकता हूँ। अब वह समाप्त हो चुकी है। पहले भी एक बार जब मेरे अंदर यही शक्ति काम कर रही थी तो मैंने आपसे कहा था कि यह आंदोलन राजनीतिक आंदोलन नहीं, बल्कि एक धर्म है, एक विश्वास है, एक निष्ठा है। उसी बात को आज फिर मैं दोहराता हूँ, किंतु आज मैं उसे दूसरे रूप में उपस्थित कर रहा हूँ।

आज मैं यह नहीं कहता कि राष्ट्रीयता एक विश्वास है, एक धर्म है, एक निष्ठा है, बल्कि मैं यह कहता हूँ कि सनातन धर्म ही हमारे लिये राष्ट्रीयता है। यह हिंद जाति सनातन धर्म को लेकर ही पैदा हुई है, उसी को लेकर चलती है और उसी को लेकर पनपती है। जब सनातन धर्म की अवनति होती है तब इस जाति की भी अवनति होती है और यदि सनातन धर्म का विनाश सभंव होता तो सनातन धर्म के साथ-ही-साथ इस जाति का भी विनाश हो जाता। सनातन धर्म ही है राष्ट्रीयता। यही वह संदेश है जो मुझे आपको सुनाना है।

महर्षि अरविन्द


‘‘इस विवाद के शांत हो जाने के बहुत समय बाद, इस हलचल, इस आंदोलन के थम जाने के बहुत पश्चात्, उनके (श्री अरविन्द के) देहावसान के बहुत बाद उनको देशभक्ति के कवि, राष्ट्रीयता के पैगम्बर और मानवता के प्रेमी के रूप में देखा जाएगा। उनके निधन के बहुत बाद तक उनकी वाणी पुनः पुनः गूँजती रहेगी-केवल भारत में ही नहीं अपितु दूर-सुदूर, समुद्र पार देशों और देशांतरों में भी।’’

शेयर करेंः