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मात्र सनातन धर्म ही विश्व शांति का रक्षक
03 दिसम्बर 1988
गुरुदेव श्री रामलालजी सियाग
एवीएसके, जोधपुर के संस्थापक और संरक्षक

महर्षि श्री अरविन्द ने घोषणा की थी कि 'भारत ही भगवान् को धरती पर लायेगा।' महर्षि श्री अरविन्द ने कहा था कि अंधकार ठोस बनकर जम गया है, अब संतों से शांति असंभव है। अब धरा पर भगवान् के अवतार की आवश्यकता है और महर्षि ने मात्र इसी लिए आराधना की। महर्षि अपने उद्देश्य में पूर्ण रूप से सफल हुए और उन्होंने घोषणा कर दी कि 24 नवंबर 1926 को ही श्री कृष्ण का पृथ्वी पर अवतरण हुआ था।

  • श्रीकृष्ण अतिमानसिक प्रकाश नहीं हैं।श्रीकृष्ण के अवतरण का अर्थ है अधिमानसिक देव का अवतरण जो जगत् को अतिमानस और आनन्द के लिए तैयार करता है। श्रीकृष्ण आंनदमय हैं। वे अतिमानस को अपने आनंद की ओर उबुद्ध करके विकास का समर्थन और संचालन करते हैं।

इसी संदर्भ में महर्षि श्री अरविन्द ने भविष्यवाणी की हुई है कि वह शक्ति जो 24.11.1926 को मनुष्य के रूप में जन्म ले चुकी है, सन् 1993 के अंत तक अपने क्रमिक विकास के साथ संपूर्ण विश्व के सामने प्रकट हो जाएगी।
  • भगवान् ने श्री अरविन्द को अलीपुर जेल में आदेश दिया था कि 'मैं इस देश को अपना संदेश फैलाने के लिए उठा रहा हूँ, यह संदेश उस 'सनातन धर्म' का संदेश है, जिसे तुम अभी तक नहीं जानते थे, पर अब जान गये हो। तुम बाहर जाओ तो अपने देशवासियों को कहना कि तुम सनातन धर्म के लिए उठ रहे हो। तुम्हें स्वार्थ सिद्धि के लिए नहीं, अपितु संसार के लिए उठाया जा रहा है। जब कहा जाता है कि भारतवर्ष महान् है तो उसका मतलब है सनातन धर्म महान् है। मैंने तुम्हें दिखा दिया है, कि मैं सब जगह और सब मैं मौजूद हूँ। जो देश के लिए लड़ रहे हैं, उन्हीं में ही नहीं, देश के विरोधियों में भी काम कर रहा हूँ। जाने या अनजाने, प्रत्यक्ष रूप से सहायक होकर या विरोध करते हुए, सब मेरा ही काम कर रहे हैं। मेरी शक्ति काम कर रही है, और वह दिन दूर नहीं जब काम में सफलता प्राप्त होगी।'

  • यीशु मसीह की भविष्यवाणियों के अनुसार भी उस सहायक के पूर्व से आने की बात कही गई है। उस सहायक के आने का यही समय है। इसके अतिरिक्त विश्व के कई भविष्यवक्ताओं ने भी कहा है कि 20 वीं सदी के अंत से पहले एक नई सभ्यता जिसका उद्गम भारत से होगा, संपूर्ण विश्व को आँधी तूफान की तरह ढक लेगी।

विश्व भर के सभी धर्मों में मात्र सनातन धर्म ही एक ऐसा धर्म है, जो मनुष्य को विकास की चरम सीमा तक पहुँचाने की बात कहता है।
  • वैदिक मनोविज्ञान के अनुसार मनुष्य शरीर की संरचना सात प्रकार के तत्त्वों से हुई है, जिनके अन्दर आत्मा अन्तर्निहित है। इन सात तत्त्वों की अलग-अलग व्याख्या करते हुए ऋग्वेद कहता है

  • 1.

    अन्नमय कोश

    2.

    प्राणमय कोश

    3.

    मनोमय कोश

    4.

    विज्ञानमय कोश

    5.

    आनन्दमय कोश

    6.

    चित्तमय कोश

    7.

    सतमय कोश

  • आज तक इनमें से प्रथम चार कोश ही मानवता में विकसित हो पाये हैं। बाकी तीनों (सत् +चित्+ आनन्द - सच्चिदानन्द) कोश अभी तक विकसित नहीं किए जा सके। वैदिक मनोविज्ञान के अनुसार अन्नमय कोश से विज्ञानमय कोश तक अपरार्द्ध या सत्ता का निम्नतर भाग है, जहाँ विद्या पर अविद्या का आधिपत्य है।

  • आनन्द से सत् तक परार्द्ध या उच्चतर अर्द्ध जिसमें अविद्या पर विद्या का प्रभुत्व है और वहाँ अज्ञान,पीड़ा या सीमा का नाम नहीं क्योंकि प्रथम चारों कोशों में विद्या पर अविद्या का आधिपत्य है, इसलिए विज्ञान का प्रयोग सृजन के स्थान पर विध्वंश में ही अधिक हो रहा है।

  • विश्व में मात्र वैदिक धर्म ही अवतारवाद का जनक है। वही कहता है कि ईश्वर की प्रत्यक्षानुभूति और साक्षात्कार संभव है। संसार के बाकी पैगम्बरवादी धर्मों में यह सामर्थ्य नहीं है। वे तो मात्र पैगम्बर के बताए अनुसार ही ईश्वर को जानते हैं। प्रत्यक्षानुभूति और साक्षात्कार करने का कोई पथ उन धर्मों में नहीं है।
  • जब सात में से चार तत्त्वों की जानकारी विश्व को हो चुकी है तो बाकी तीन कोशों का भी ज्ञान प्राप्त करना संभव है। परन्तु उस ज्ञान को प्राप्त करने की सामर्थ्य केवल सनातन धर्म में ही है, क्योंकि वह ईश्वरवाद का जनक है। पैगम्बरवादी धर्म यह कार्य नहीं कर सकते। क्योंकि अब बाकी तीनों तत्त्वों (सत्+चित्+आनन्द - सच्चिदानन्द) के चेतन होने का नम्बर है, अतः यह कार्य मात्र भारत ही करेगा।

  • अनादिकाल से यह ज्ञान विश्व को भारत ही देता रहा। इसी दिव्य ज्ञान का प्रसार-प्रचार संपूर्ण विश्व में पुनः करके अपने स्वर्ण युग में प्रवेश कर जाएगा। मनुष्य योनि में चरम विकास की बात कहते हुए भगवान् श्री कृष्ण ने गीता के 13 वें अध्याय के 23वें श्लोक में पुरुष की व्याख्या करते हुए कहा है

  • उपद्रष्टाऽनुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः।
    परमात्मेति चाप्युक्तो देहेऽस्मिन्पुरुषः परः।। 13.23

    - गीता

  • वास्तव में पुरुष इस देह में स्थित हुआ भी पर (त्रिगुणातीत ) ही है । (केवल) साक्षी होने से उपद्रष्टा और यथार्थ सम्मति देने वाला होने से अनुमन्ता (एवं) सबको धारण करने वाला होने से भर्ता, जीवरूप से भोक्ता (तथा) ब्रह्मादिकों का भी स्वामी होने से महेश्वर और शुद्ध सच्चिदानन्दधन होने से परमात्मा' ऐसा कहा गया है।

  • गीता की उपर्युक्त व्याख्या के अनुसार मनुष्य आत्म साक्षात्कार करते हुए 'तद्रूप' बन सकता है। अतः वैदिक मनोविज्ञान के अनुसार उपर्युक्त सातों तत्त्वों को चेतन करके मनुष्य अपने चरम विकास को प्राप्त कर सकता है। भारत के ही नहीं, विश्व भर के अनेक भविष्यवक्ताओं ने जो भविष्यवाणी की है कि भारत का ही दर्शन 21वीं सदी में मान्य होगा।

  • 21 वीं सदी में भारत पुनः अपने 'जगत् गुरु' के पद पर आसीन हो जाएगा। इसी प्रकार भारतीय योगदर्शन भी क्रियात्मक ढंग से उस परमपद को प्राप्त करने की विधि बताता है। हमारे दर्शन के अनुसार मनुष्य ईश्वर की सर्वोच्च अभिव्यक्ति है, मनुष्य वास्तव में विराट है।

  • अतः हमारा दर्शन स्पष्ट शब्दों में कहता है कि जो ब्रह्माण्ड में है वही पिण्ड में है। इसीलिए ज्ञानसंकलिनी तन्त्र में कहा है -

  • देहस्थाः सर्व्व विधाश्च देहस्थाः सर्व देवताः।
    देहस्थाः सर्व्व तीर्थानि गुरु वाक्येन लभ्यते॥

    - ज्ञानसंकलिनी तन्त्र

  • उपर्युक्त दार्शनिक सिद्धान्त के अनुसार ऋषियों ने जब संपूर्ण ब्रह्माण्ड को देखकर उस परमतत्त्व की खोज मनुष्य शरीर में आरंभ की तो पाया, कि उस परमसत्ता का निवास सहस्रार में है। उसी ने अपनी शक्ति के सहारे इस संपूर्ण ब्रह्माण्ड की रचना की, जिसका निवास स्थान उसने मूलाधार में पाया। इन्हीं दोनों तत्त्वों के कारण संपूर्ण सष्टि की उत्पत्ति हुई।

  • प्रभु की वह शक्ति सहस्रार से नीचे चली और असंख्य ब्रह्माण्डों और लोकों की रचना करती हुई मूलाधार में आकर स्थित हो गई। यह शक्ति सुषुप्त अवस्था में रहती है। केवल मनुष्य योनि में ही इसे जागृत किया जा सकता है। यह कार्य गुरुकृपा रूपी शक्तिपात से ही संभव है।

  • 21 वीं सदी में भारत पुनः अपने 'जगत् गुरु' के पद पर आसीन हो जाएगा। इसी प्रकार भारतीय योगदर्शन भी क्रियात्मक ढंग से उस परमपद को प्राप्त करने की विधि बताता है। हमारे दर्शन के अनुसार मनुष्य ईश्वर की सर्वोच्च अभिव्यक्ति है, मनुष्य वास्तव में विराट है।

  • सिद्धयोग में गुरु शिष्य परम्परा में शक्तिपात दीक्षा का विधान है। गुरु शक्तिपात करके साधक की कुंडलिनी को चेतन करते हैं। चेतन होते ही वह शक्ति सुषुम्ना के रास्ते, अपने स्वामी से मिलने सहस्रार की तरफ ऊर्ध्वगमन करने लगती है। गुरु का उस पर पूर्ण प्रभुत्व होता है, अतः वे उसका नियंत्रण और संचालन स्वयं करते हैं। वह शक्ति ऊर्ध्व गमन करती हुई छह चक्रों और तीनों ग्रन्थियों का वेधन करती हुई साधक को समाधि स्थिति, जो कि समत्वबोध की स्थिति है, प्राप्त करा देती है। इस प्रकार पृथ्वी तत्त्व के आकाश तत्त्व में लय होने को ही मोक्ष अर्थात् कैवल्य पद प्राप्त होने की संज्ञा दी गई है।

  • शक्तिपात से जब कुण्डलिनी जाग्रत हो जाती है तो ऊर्ध्वगमन करने लगती है। कई जन्मों के संस्कारों के कारण रास्ता अवरुद्ध रहता है। अतः साधक को विविध प्रकार की यौगिक क्रियाएँ जैसे आसन, बन्ध, मुद्राएँ एवं प्राणायाम स्वतः होने लगते हैं। वह शक्ति साधक का शरीर, प्राण, मन और बुद्धि अपने स्वायत्त कर लेती है। इस प्रकार जो क्रियाएँ होती हैं, उसमें साधक का किसी प्रकार का सहयोग या असहयोग कार्य नहीं करता है।
  • साधक न तो उन्हें करने की स्थिति में होता है, और नही रोकने की। वह शक्ति सीधा अपने नियंत्रण में सभी क्रियाएँ करवाती है। इस प्रकार भौतिक विज्ञान को यह खुली चुनौती है। मेरे शिष्यों में अनेक इंजिनियरिंग के छात्र तथा इंजिनियर हैं। उन सभी को ये क्रियाएँ होती हैं। इससे पातंजलि योगदर्शन में वर्णित सभी सिद्धियों के ज्ञान के साथ-साथ हर प्रकार से पूर्ण स्वस्थ होकर मोक्ष प्राप्त करता है।

  • पातंजलि योगदर्शन में साधक को जिन सिद्धियों का ज्ञान प्राप्त होता है उनमें एक का नाम प्रातिभ ज्ञान है। इस ज्ञान का वर्णन विभूतिपाद के 33वें तथा 36 वें सूत्र में वर्णन किया गया है। इस संबंध में ऋषि ने कहा है:

  • ततःप्रातिभश्रावण वेदनास्वादवार्ता जायन्ते।
  • विभूतिपाद उससे प्रातिभ, श्रावण, वेदन, आदर्श, आस्वाद और वार्ता ये (छह सिद्धियाँ) प्रकट होती हैं-

  • 1.

    प्रातिभ: इससे भूत, भविष्य और वर्तमान एवं सूक्ष्म, ढकी हुई और दूर देश में स्थित वस्तुएँ प्रत्यक्ष हो जाती हैं।

  • 2.

    श्रावण: इससे दिव्य शब्द सुनने की शक्ति आ जाती है।

  • 3.

    वेदन: इससे दिव्य स्पर्श का अनुभव - करने की शक्ति आ जाती है।

  • 4.

    आदर्श: इससे दिव्य रूप का दर्शन करने की शक्ति आ जाती है।

  • 5.

    आस्वाद: इससे दिव्य रस का अनुभव करने की शक्ति आ जाती है।

  • 6.

    वार्ता: इससे दिव्य गंध का अनुभव करने की शक्ति आ जाती है।

  • मैं संसार में इस ज्ञान को बाँटने के लिए ही मेरे गुरु के आदेश से निकला हूँ। यह ज्ञान मात्र गुरु कृपा से ही प्राप्त होना संभव है। इसकी कीमत मात्र गुरु के चरणों में पूर्ण समर्पण है। और किसी विधि या बौद्धिक प्रयास से यह ज्ञान प्राप्त होना असंभव है।
  • इस समय मानव बुद्धि को बहुत बड़ी मानता है। परन्तु इस युग का मानव भूल जाता है,कि 'मन' बुद्धि को दिन में कई सब्जबाग दिखाकर चकमा दे जाता है। भारतीय योगदर्शन में मन को स्थिर करके ही यह ज्ञान प्राप्त करने की क्रियात्मक विधि बताई गई है। पातंजलि ऋषि ने जब योग दर्शन लिखना आरंभ किया तो योग की व्याख्या करते हुए दूसरे सूत्र में स्पष्ट शब्दों कहा है - चित्त की वृत्तियों का निरोध ही योग है।

  • और यह कार्य मनुष्य स्वयं नहीं कर सकता। इसमें चेतन गुरु की नितान्त आवश्यकता होती है। इस संबंध में महोपनिषद में कहा है:

  • दुर्लभो विषयत्यागो दुर्लभं तत्वदर्शनम्।
    दुर्लभो सहजावस्था सद्गुरोः करुणां बिना। 77॥

    'सद्‌गुरु की दया के बिना विषय-त्याग दुर्लभ है, तत्त्वदर्शन दुर्लभ है, और सहजावस्था दुर्लभ है।'

    - महोपनिषद

  • मेरे संत सद्‌गुरु देव बाबा श्री गंगाई नाथ जी योगी (ब्रह्मलीन) की अहैतु की कृपा मुझ पर नहीं होती तो मैं सौ जन्मों तक आराधना करके भी यह ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता था। अतः इसे गुरुप्रसाद समझकर बाँटने निकला हूँ। विश्व के सभी सकारात्मक स्त्री-पुरूषों को सच्चाई जानने के लिए सप्रेम आमंत्रित करता हूँ।

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