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पापों से मुक्ति केवल ईश्वर की प्रत्यक्षनुभूति से ही संभव है
19 मार्च 1988
गुरुदेव श्री रामलालजी सियाग
एवीएसके, जोधपुर के संस्थापक और संरक्षक

संसार का कोई भी कर्म ऐसा नहीं है जो दोषयुक्त न हो। हर काम में गुण और दोष ऐसे लिपटे रहते हैं कि उनको अलग करना असम्भव है। इस प्रकार संसार में विचरण करने वाला मानव पाप से बच ही नहीं सकता है।

  • इस युग के धर्माचार्य पाप और पुण्य की जिस प्रकार व्याख्या करके पाप से बचने के जितने उपाय अपनी बुद्धि चातुर्य से बताते हैं, उनसे केवल झूठी सांत्वना के अलावा कोई फायदा नहीं है। इस संसार में विचरण करते हुए, पाप कर्मों से बचना असम्भव है।

  • भगवान् कृष्ण ने गीता में स्पष्ट कहा :

  • सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत् ।
    सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः ॥
    || गीता - 18:48 ||

    “हे कुन्ती पुत्र, दोषयुक्त होते हुए भी स्वाभाविक कर्म को नहीं त्यागना चाहिए क्योंकि धुंए से अग्नि के सदृश सब ही कर्म दोष से आवृत हैं। ऐसी स्थिति में पाप से बचना सम्भव नहीं। मनुष्य त्रिगुणमयी माया के वशीभूत हो कर हर काम में कर्ता भाव रखता है। यही कर्ता भाव मनुष्य का एक मात्र शत्रु है। इसी के कारण जीव निरन्तर जन्म-मरण के चक्कर में फंस कर दुःख भोग रहा है।

  • ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति ।
    भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया ॥
    || गीता - 18:61 ||

    हे अर्जुन ! शरीर रूप यन्त्र में आरूढ़ हुए सम्पूर्ण प्राणियों को अन्तर्यामी परमेश्वर अपनी माया से भरमाता हुआ, सब भूत प्राणियों के हृदय में स्थित है। भगवान् श्रीकृष्ण ने उपर्युक्त श्लोक में स्पष्ट बता दिया कि प्राणी मात्र को भरमाता हुआ, मैं अपनी इच्छा से चला रहा हूँ। इतने पर भी जीव माया के चक्र से निकल नहीं पा रहा है। युग के गुण धर्म के कारण तामसिक शक्तियों का इतना प्रबल प्रभाव हो चला है कि किसी को सही रास्ता नजर ही नहीं आ रहा है।



  • तामसिक शक्तियों ने ऐसे असंख्य तथाकथित अध्यात्मवादी सन्त सात्विकता का भेष बना कर फैला रखे हैं कि वे किसी को सही दिशा खोजने का अवकाश ही नहीं पाने देते। निरन्तर ईश्वर की आड़ में नई तर्क बुद्धि द्वारा नई-नई व्याख्या गढ़ कर, लोगों को भ्रमित कर रहे हैं। भगवान श्रीकृष्ण निम्न श्लोक में स्पष्ट आदेश देते हैं, परन्तु धर्म गुरु इसे भी तोड़-मरोड़कर ऐसी व्याख्या कर देते हैं कि किसी को सच्चा मार्ग दिखाई नहीं देवे –

  • सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।
    अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ।।

    - भगवान श्रीकृष्ण

    || गीता - 18:66 ||
  • सब धर्मों को त्याग कर केवल एक मेरी अनन्य शरण को प्राप्त हो, मैं तुझे संपूर्ण पापों से मुक्त कर दूंगा । तू शोक मत कर। इतने स्पष्ट आश्वासन के बावजूद संसार का प्राणी अन्धकार में भटक रहा है। इसीलिए श्री अरविन्द ने स्पष्ट कहा था कि पार्थिव चेतना में उस परमसत्ता का अवतरण ही एक मात्र उपाय है, जिससे संसार का अन्धकार मिट सकता है। बाकी सारी शक्तियाँ असफल हो चुकी हैं। उन्होंने स्पष्ट कहा था कि श्री तिलक, दास, विवेकानन्द - इनमें से कोई भी साधारण मनुष्य न था, लेकिन इनके होते हुए भी तामस् बना हुआ है। श्री अरविन्द ने स्पष्ट कहा था "भगवान की इच्छा है कि भारत, सचमुच भारत बने, योरोप की कार्बन कॉपी नहीं। तुम अपने अन्दर समस्त शक्ति के स्रोत को खोज निकालो, फिर तुम्हारी समस्त क्षेत्रों में विजय ही विजय होगी"। फिर भी कोई धर्म गुरु चेतन नहीं है । उस परमसत्ता से जुड़े बिना चेतनता असम्भव है। केवल प्रदर्शन, शब्द जाल और तर्क शास्त्र से काम चलने वाला नहीं।

  • मेरी प्रत्यक्षानुभूतियों के आधार पर, मैं इस कार्य को बहुत आसान और सम्भव मानता हूँ। मेरे गुरुदेव के आशीर्वाद के कारण, उनके स्वर्गवास के बाद, मुझसे जुड़ने वाले सभी जिज्ञासु व्यक्तियों को यह लाभ मिलना प्रारम्भ हो गया है। मुझे जो कुछ इस संसार का काम सौंपा गया है, उसके अनुसार तो श्री अरविन्द की भविष्यवाणियाँ सत्य होती नजर आ रहीं हैं।

  • मेरे जैसे साधारण मनुष्य को इस प्रकार की शक्ति ईश्वर ने क्यों दी, समझ में नहीं आ रहा है! एक बार कातर स्वर से करुण पुकार करके मैंने ईश्वर से कहा था, “प्रभु! मेरे जैसे साधारण प्राणी से आप ऐसे असम्भव कार्य क्यों करवा रहे हैं? किसी योग्य व्यक्ति को चुनो ।” आदेश हुआ – “मेरी आज्ञा पत्थर पर लकीर है। यह सब तुम्हें ही करना पड़ेगा।”

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