Image Description Icon
ईश्वर आराधना से सब कुछ मिलता है
10 अप्रैल 1988
गुरुदेव श्री रामलालजी सियाग
एवीएसके, जोधपुर के संस्थापक और संरक्षक

संसार का कोई भी कर्म ऐसा नहीं है जो दोषयुक्त न हो। हर काम में गुण और दोष ऐसे लिपटे रहते हैं कि उनको अलग करना असम्भव है। इस प्रकार संसार में विचरण करने वाला मानव पाप से बच ही नहीं सकता है।

    भगवान् श्रीकृष्ण ने गीता के 7वें अध्याय में इस सम्बन्ध में कहा है :

  • चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन ।
    आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ ॥
    || गीता - 7:16 ||

    हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन! उत्तम कर्मवाले अर्थार्थी (धन की इच्छावाले), आर्त्त (संकट निवार्णार्थ), जिज्ञासु और ज्ञानी चार प्रकार के भक्तजन मेरे को भजते हैं।

  • तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते ।
    प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः ॥
    || गीता - 7:17 ||

    उनमें नित्य मेरे में एकीभाव से स्थित हुआ, अनन्य प्रेम भक्तिवाला ज्ञानी भक्तअति उत्तम है, क्योंकि ज्ञानी को मैं अत्यन्त प्रिय हूँ और वह ज्ञानी मुझको प्रिय है।

  • उदाराः सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम् ।
    आस्थितः स हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम् ॥
    || गीता - 7:18 ||

    यह सभी (सब ही) उदार हैं (उत्तम हैं) परन्तु ज्ञानी मेरा स्वरूप ही है। (ऐसा) मेरा मत है, क्योंकि वह स्थिर बुद्धि अति उत्तम गतिस्वरूप मेरे में ही अच्छी प्रकार स्थित है।

  • बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते ।
    वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ॥
    || गीता - 7:19 ||

    बहुत जन्मों के अन्त के जन्म में तत्त्व ज्ञान को प्राप्त हुआ ज्ञानी सब कुछ वासुदेव ही है, इस प्रकार मेरे को भजता है वह महात्मा अति दुर्लभ है।

  • कामैस्तैस्तैर्हृतज्ञानाः प्रपद्यन्तेऽन्यदेवताः ।
    प्तं तं नियममास्थाय प्रकृत्या नियताः स्वया ॥
    || गीता - 7:20 ||

    अपने स्वभाव से परे हुए उन-उन भोगों की कामना द्वारा ज्ञान से भ्रष्ट हुए उस नियम को धारण करके अन्य देवताओं को भजते हैं।

  • यो यो यां यां तनुं भक्तः श्रद्धयार्चितुमिच्छति ।
    तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम् ॥
    || गीता - 7:21 ||

    जो जो सकामी भक्त जिस जिस देवता के स्वरूप को श्रद्धा से पूजना चाहता है, उस भक्त की मैं उसी देवता के प्रति श्रद्धा को स्थिर करता हूँ।

  • स तया श्रद्धया युक्तस्तस्याराधनमीहते ।
    लभते च ततः कामान्मयैव विहितान् हि तान् ॥
    || गीता - 7:22 ||

    वह पुरुष उस श्रद्धा के युक्त हुआ उस देवता के पूजन की चेष्टा करता है, और उस देवता से मेरे द्वारा ही विधान किये हए, उन इच्छित भोगों को निःसन्देह प्राप्त होता है।

  • अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम् ।
    देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यान्ति मामपि ॥
    || गीता - 7:23 ||

    परन्तु उन अल्पबुद्धिवालों का वह फल नाशवान् है। देवताओं को पूजने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं, मेरा भक्त मुझको ही प्राप्त होता है।



  • गीता में भगवान् ने यह स्पष्ट कर दिया कि जीव जिस भाव से पूजा करता है, वह वही पाता है। यह संसार एक ही परमसत्ता का विस्तार है, इस भाव को जिसने तत्त्व से जान लिया, उसका कर्ता भाव पूर्ण रूप से नष्ट हो जाता है।ऐसी स्थिति में जीव संसार में विचरण करते हुए जो भी कर्म करता है, वह उन सभी कर्मों के बन्धन से मुक्त ही रहता है। भगवान् ने इस सम्बन्ध में साफ कहा है कि बहुत जन्मों के बाद अन्त के जन्म में जीव तत्त्व ज्ञान से ईश्वर को जानने में योग्य होता है।

  • इसीलिए भगवान् ने 18वें अध्याय के 66वें श्लोक में स्पष्ट आदेश दिया है :

  • सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।
    अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥
    || गीता - 18:66 ||

    सर्व धर्मों को त्याग कर केवल एक मुझ परमात्मा की ही अनन्य शरण को प्राप्त हो, मैं तेरे को सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूंगा, तू शोक मत कर ।

  • इतने स्पष्ट आश्वासन के बाद भी, इस समय संसार में इतना घोर अन्धकार व्याप्त है कि जीवों को कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा है। । इससे यह बात ठीक लगती है कि भगवान् ने चौथे अध्याय में- ‘यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवतिभारत’ वाला समय अब अधिक दूर नही है। इस समय जो स्थिति संसार की है उसका इलाज तो उस परमसत्ता के अवतरण के बिना पूर्णरूप से असम्भव लगता है। छोटे मोटे प्रकाश से संसार का तमस् मिटना अब असम्भव हो गया है।

शेयर करेंः