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निष्काम कर्म योगी संसार के सम्पूर्ण कर्मों को करता हुआ नहीं बंधता है
7 अप्रैल 1988
गुरुदेव श्री रामलालजी सियाग
एवीएसके, जोधपुर के संस्थापक और संरक्षक

    भगवान् श्रीकृष्ण ने गीता के 18वें अध्याय में स्पष्ट कहा है:

  • सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्व्यपाश्रयः ।
    मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम् ॥
    || गीता - 18:56 ||

    'मेरे परायण हुआ निष्काम कर्म योगी सम्पूर्ण कर्मों को सदा करता हुआ भी, मेरी कृपा से सनातन अविनाशी परमपद को प्राप्त हो जाता है।

  • चेतसा सर्वकर्माणि मयि संन्यस्य मत्परः ।
    बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चित्तः सततं भव ॥
    || गीता - 18:57 ||

    सब कर्मों को मन से मेरे में अर्पण करके, मेरे परायण हुआ समत्वबुद्धि रूप निष्काम कर्मयोग को अवलम्बन करके निरन्तर मेरे में चित्तवाला हो।

  • मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि ।
    अथ चेत्त्वमहङ्कारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि ॥
    || गीता - 18:58 ||

    तूं मेरे में निरन्तर मनवाला हुआ, मेरी कृपा से जन्म-मृत्यु आदि सब शंकाओं से तर जायेगा और यदि अहंकार के कारण नहीं सुनेगा (तो )नष्ट हो जायेगा।

  • यदहङ्कारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे ।
    मिथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति ॥
    || गीता - 18:59 ||

    जो (तू) अहंकार का अवलम्बन करके ऐसे मानता है (कि) मैं युद्ध नहीं करूँगा (तो) यह तेरा निश्चय मिथ्या है। क्योंकि क्षत्रियपन का स्वभाव तेरे को जबरदस्ती युद्ध में लगा देगा।

  • स्वभावजेन कौन्तेय निबद्धः स्वेन कर्मणा ।
    कर्तुं नेच्छसि यन्मोहात्करिष्यस्यवशोऽपि तत् ॥
    || गीता - 18:60 ||

    हे अर्जुन! जिस कर्म को (तू ) मोह से नहीं करना चाहता है, उसको भी अपने स्वाभाविक कर्म से बंधा हुआ, परवश हो कर करेगा।

  • ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति ।
    भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया ॥
    || गीता - 18:61 ||

    हे अर्जुन !शरीर रूप यन्त्र में आरूढ़ हुए संपूर्ण प्राणियों को अन्तर्यामी परमेश्वर अपनी माया से भ्रमाता हुआ, सब भूत प्राणियों के हृदय में स्थित है।

  • तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत ।
    तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम् ॥
    || गीता - 18:62 ||

    हे भारत ! सब प्रकार से उस परमेश्वर की ही शरण को प्राप्त हो, उस परमात्मा की कृपा से परम शान्ति को (और ) सनातन परमधाम को प्राप्त होगा।

  • भगवान ने उपर्युक्त श्लोकों से स्पष्ट कर दिया है कि ईश्वर सर्वभूत प्राणियों के शरीर रूपी यन्त्र में आरूढ़ होकर, सब को भ्रमाता हुआ, अपनी इच्छा से चला रहा है। इस पर भी जीव माया के वशीभूत हुआ, अपने आपको कर्ता मानकर व्यर्थ में जन्म मरण के चक्कर में फंस कर दुःख भोग रहा है।

  • संसार का कोई भी मनुष्य माया से भ्रमित हुआ अपनी स्थिति से संतुष्ट नहीं है। वह अपनी बुद्धि की चतुराई से बहुत कुछ प्राप्त करने की चेष्टा निरन्तर करता रहता है। परन्तु जीव, जीवन भर की चेष्टाओं के बाद भी सन्तुष्ट नहीं हो पाता है, और उसका मन अन्त समय में भी सांसारिक लोकों की तरफ आकर्षित रहता है। इस प्रकार जीव निरन्तर जन्म मरण के चक्कर में फंसकर भारी कष्टों में फंसा हुआ है।

  • इस युग में माया इतनी प्रबल हो चली है कि संसार में पूर्ण अन्धकार छाया हुआ है। जब तक जीव में सात्विक चेतना न आ जाय, उसका कर्ता भाव खत्म ही नहीं हो सकता। जब तक प्राणी इस झूठे अहम्, कर्तापन के भाव से मुक्त नहीं हो जाता, उसको निष्काम कर्म योग की बात समझ में ही नहीं आ सकती। ऐसी स्थिति में इस माया से छुटकारा पाना बहुत ही कठिन है। एकमात्र हिन्दू धर्म ही है, जिसके संतमत में इस माया से छुटकारा पाने का उपाय बताया गया है। सभी संतों ने एक मत से यही कहा है कि उस परमसत्ता से मिलने का रास्ता केवल संत सद्‌गुरु ही बता सकते हैं।

  • इस सम्बन्ध में संत कबीर ने कहा है:

  • कबीरा धारा अगम की, सद्‌गुरु दई लखाय ।
    उलट ताहि पढिये सदा, स्वामी संग लगाय ॥

  • मीरा बाई कहती है:

  • गुरु गोविन्द दोनों खड़े, किसके लागूं पांव ।
    बलिहारी गुरु देव की, गोविन्द दिया मिलाय ॥

  • इस सम्बन्ध में स्वामी विवेकानन्द जी ने भी कहा है कि "आध्यात्मिक जगत् में गुरु के बिना सफलता असम्भव है, परन्तु इस युग में सच्चा संत सद्‌गुरु मिलना कठिन है।"

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