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हमें सत्य की खोज करनी होगी ।
गुरुदेव श्री रामलालजी सियाग
एवीएसके, जोधपुर के संस्थापक और संरक्षक

संसार एक बहुत ही विचित्र पहेली है। परमसत्ता ने अपनी त्रिगुणमयी माया के द्वारा ऐसी व्यवस्था कर रखी है कि कर्ता -भोक्ता में कोई भी अन्तर न होते हुए, अन्तर नजर आ रहा है।

  • इस युग में मात्र जीवभाव ही शेष बचा है, आत्म भाव लुप्त प्रायः हो चुका है। यही कारण है कि आज विश्व में जितनी अशांति फैली हुई है, ऐसी पहले कभी नहीं रही। इस समय विश्व से सतोगुण लुप्त प्रायः हो चुका है। यही कारण है कि रजोगुण पर पूर्णरूप से तमोगुण का प्रभुत्व है। इसीलिए विश्व के कर्णधार भय से शांति स्थापित करने का असफल प्रयास कर रहे हैं। पैगम्बरवादी अपने आण्विक हथियारों का भय दिखाकर ज्यों-ज्यों शांति स्थापित करने का प्रयास तेज कर रहे हैं, अशांति उससे भी तेज गति से फैल रही है।

  • आज विश्व में निरन्तर नरसंहार हो रहा है, उतना पहले कभी नहीं हुआ। आज सम्पूर्ण विश्व को 7-8 बार नष्ट करें, उतने हथियार बन चुके हैं। उनसे कोई यह पूछे पृथ्वी को एक बार नष्ट कर दोगे, फिर जब विश्व में प्राणधारी कोई बचेगा ही नहीं तो बाकी का क्या होगा? प्रभु ने जो शक्ति "सृजन" के लिए दी थी, उसका उपयोग "विध्वंश" में करने वाले क्या "सेनाओं के यहोवा" के कोप से बच सकेंगे? सनाओं का यहोवा क्या करेगा? उन्हें इस भविष्यवाणी का रोज चिन्तन करना चाहिए।

  • "सेनाओं का यहोवा, अचानक बादल गरजाता, भूमि को कम्पाता और महाध्वनि करता, बवण्डर और आँधी चलाता और नाश करने वाली अग्नि भड़काता हुआ, उसके पास आएगा।" ( यशायाह 29:6 )

  • क्योंकि विश्व भर में तामसिक वृत्तियों का एक छत्र साम्राज्य हैं; अतः वह शक्ति मानव को शांति से बैठ कर सोचने का मौका ही नहीं देती है। शांति और अशांति मनुष्य के अन्दर है, आण्विक अस्त्र-शस्त्र में नहीं ! उनमें शांति ढूँढना मात्र मृगमरिचिका है। भय मिश्रित शांति, मानव-हृदय में जो वेदना पैदा करती है, उससे अशांति चौगुणी बढ़ती है। विश्व-शांति मात्र धर्म से ही संभव है। संसार भर के सभी धार्मिक ग्रन्थ और संतों की वाणी जो सच्चाई कह रही है, जब तक हम सभी उनकी प्रत्यक्षानुभूति और साक्षात्कार करने का प्रयत्न पूरी लगन से नहीं करेंगे, शांति मृगमरिचिका ही बनी रहेगी।

  • मानव जब तक यह समझ कर कि मानव मात्र परमेश्वर की संतानें हैं, आचरण नहीं करेगा शांति असंभव है। मात्र शांति-शांति चिल्लाने से कोई लाभ नहीं होगा। जब तक संसार के लाखों करोड़ों लोग अंतर्मुखी होकर आत्म-साक्षात्कार नहीं करेंगे, कार्य सिद्धि असंभव है। वेदान्त दर्शन स्पष्ट शब्दों में कहता है- "सर्वं खल्विदं ब्रह्म"। भारतीय दर्शन के सभी ग्रन्थ एक स्वर में कहते हैं कि उस परमतत्त्व की प्रत्यक्षानुभूति और साक्षात्कार केवल मनुष्य योनि में ही, अपने अन्दर ही की जा सकती है।

भगवान् श्रीकृष्ण ने गीता के 13 वें अध्याय के 22 वें श्लोक में कहा है-
उपद्रष्टानुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः ।
परमात्मेति चाष्युक्तो देह स्मिन्पुरूषः परः ।।13:22।।

“वास्तव में यह पुरूष इस देह में स्थित हुआ भी "पर" (त्रिगुणातीत) ही है। (केवल) साक्षी होने से उपद्रष्टा और यथार्थ सम्मति देने वाला होने से अनुमन्ता (एवं) सबको धारण करने वाला होने से 'भर्ता' जीवरूप से 'भोक्ता' तथा ब्रह्मादिकों का भी स्वामी होने से 'महेश्वर' और शुद्ध सच्चिदानन्द धन होने से परमात्मा ऐसा कहा गया है।"

उपर्युक्त श्लोक से स्पष्ट होता है कि मनुष्य योनि का उच्चतम विकास, उस परमसत्ता के तदूप होना है। जब तक विश्व में ऐसे विकसित, लाखों करोड़ों लोग प्रकट नहीं होंगे, शांति असम्भव है।
भगवान् श्रीकृष्ण ने गीता के 18 वें अध्याय के 61 वें श्लोक में कहा है
ईश्वरः सर्वभूतानां हृदेशे अर्जुन तिष्ठति ।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया ।।18:61।।

"हे अर्जुन! शरीर रूपी यंत्र में आरुढ़ हुए सम्पूर्ण प्राणियों को अन्तर्यामी परमेश्वर अपनी माया से भ्रमाता हुआ, सब भूत प्राणियों के हृदय में स्थित है।"
  • मात्र अन्तर्मुखी होने की देर है, सभी समस्याओं का समाधान हो जाता है। परन्तु यह कार्य गुरु के बिना असम्भव है। मात्र गोविन्द से मिलाने वाले को ही ‘सद्गुरु’ की संज्ञा दी जा सकती है।

  • ठीक उपर्युक्त भाषा में ही बाइबिल बोलती है:

  • 2 कुरिन्थियों 6:16 में भगवान् ने ही अपने उपर्युक्त श्लोक दोहराते हुए कहा है- "और मुरतों के साथ परमेश्वर के मंदिर का क्या बंध? क्योंकि हम तो जीवते रमेश्वर के मंदिर हैं, जैसा परमेश्वर ने कहा है कि मैं उनमें बोलूँगा, और उनमें चलाफिरा करूँगा, और मैं उनका परमेश्वर हूँगा, और वे मेरे लोग।"

    उपर्युक्त श्लोक से स्पष्ट है कि मनुष्य योनि में ईश्वर के दर्शन संभव है, जिसे मोक्ष कहते हैं, बाइबिल इसे अनन्त की संज्ञा देती है।

  • प्रकाशित वाक्य 2:11 में कहा है " जिसके कान हो वह सुन ले कि आत्मा कलीसियाओं से क्या कहता है- "जो जय पाए, उसको दूसरी मृत्यु से हानि न पहुँचेगी।"

  • ‘शब्द’ से सृष्टि की उत्पत्ति को सभी धर्म स्वीकार करते हैं। शब्द से उत्पन्न हुआ पुरूषपुनःशब्द के रूप में परिवर्तित हो सकता है, यह बात मात्र वेदान्त दर्शन ही कहता है। शब्द ब्रह्म से परब्रह्म की प्राप्ति का सिद्धान्त मात्र हमारे दर्शन की ही देन है। विश्व का इस दिव्य ज्ञान का दान भारत अनादिकाल से करता आया है और करता रहेगा।

  • भगवान् श्रीकृष्ण ने सृष्टि की उत्पत्ति के संबंध में गीता के 17वें अध्याय के 23 वें श्लोक में कहा है
    ॐ तत्सदिति निर्देशो बह्मणस्त्रिविधः स्मृतः ।
    ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिताः पुरा ।।17:23।।

    "ॐ तत् सत् ऐसे (यह) तीन प्रकार का सच्चिदानंदधन ब्रह्म का नाम कहा है, उसी से सृष्टि के आदिकाल में ब्राह्मण और वेद तथा यज्ञादिक रचे गये हैं। "

    इस संबंध में वेद स्पष्ट कहता है:

  • "आओ उस ज्योति में पहुँचें, जो स्वर लोक की है, उस ज्योति में जिसे कोई खण्ड-खण्ड नहीं कर सकता है।"

    इस प्रकार हम देखते हैं वह ‘प्रकाशप्रद –शब्द’ अजर-अमर है, अनादि अनन्त है।

  • पातंजलि योगदर्शन में भी ऋषि ने कहा है:

  • "हरि नाम के जप के बिना कैवल्यपद प्राप्त नहीं किया जा सकता, योग सिद्धि नहीं हो सकती ।"

    समाधिपाद के 24 से 29 तक के श्लोकों में ऋषि ने ईश्वर की व्याख्या करते हुए उसके नाम जप से विघ्नों का अभाव और आत्म साक्षात्कार की बात कही है।

    ऋषि कहता है-"क्लेश, कर्म, विपाक और आशय -इन चारों से जो संबंधित नहीं है (तथा) जो समस्त पुरूषों से उत्तम है, वह, ‘ईश्वर’ है। उस (ईश्वर) में सर्वज्ञता का बीज (कारण)अर्थात् ज्ञान निरतिशय है।(वह ईश्वर सबके) पूर्वजों के भी गुरु हैं, (सर्ग के आदि में उत्पन्न होने के कारण सबका गुरु ब्रह्मा को माना जाता है, परन्तु काल से अवच्छेद है। गीता 8:17।) क्योंकि उसका काल से अवच्छेद नहीं है। उस ईश्वर का वाचक (नाम)प्रणव(ॐ) है।उस नाम का जप, उसके अर्थस्वरूप परमेश्वर का चिन्तन (करना चाहिए) उक्त साधन से (ईश्वर के नाम जप से) विघ्नों का अभाव और अन्तरात्मा के स्वरूप काज्ञान भी हो जाता है)।"

  • भगवान् श्रीकृष्ण ने भी गीता के 10वें अध्याय के 25 वें श्लोक में नाम जप को अपना स्वरूप बताते हुए, उसे सर्वोत्तम यज्ञ की संज्ञा देते हुए स्पष्ट शब्दों में कहा है
    यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि
  • महाभारत में भी हरिनाम के जप को सर्वश्रेष्ठ धर्म की संज्ञा देते हुए कहा -जपस्तु,सर्वाधर्मेभ्यः परमो धर्म उच्यते। अहिंसया च भूतानां जपयज्ञः प्रवर्तते॥ "समस्त धर्मों में जप सर्वश्रेष्ठ धर्म है, क्योंकि जप-यज्ञ, बिना किसी हिंसा के पूरा होता है।"

  • यहुदियों के 'सृष्ट्युत्पत्ति' प्रकरण में भी कहा है-"समुद्र के ऊपरी तल पर अन्धकार था, और ईश्वर की आत्मा जलों पर विचरण कर रही थी। शब्द के द्वारा उसने समुद्र को अन्तरिक्ष से विभक्त किया, जिसके परिणाम स्वरूप अब यहाँ दो समुद्र हैं, एक पार्थिव जो अंतरिक्ष के नीचे है, दूसरा धुलोकीय जो अंतरिक्ष के ऊपर है।" ईसाइयों के पवित्र ग्रंथ बाइबिल में भी (जैसे गीता में ॐ को ईश्वर का प्रतीक माना है) 'शब्द' ही को परमात्मा की संज्ञा दी गई है। सेंट जॉहन 1:1 से 4 में कहा है (1)आदि में वचन (शब्द) था, और वचन (शब्द) परमेश्वर के साथ था, और वचन (शब्द) परमेश्वर था। (2) यही आदि में परमेश्वर के साथ था।(3) सबकुछ उसी के द्वारा उत्पन्न हुआ, और जो कुछ उत्पन्न हुआ, उसमें कोई भी वस्तु उसके बिना उत्पन्न न हुई। उस (शब्द) में जीवन था, और वह जीवन मनुष्यों की ज्योति थी।"

  • मनुस्मृति में भी जप यज्ञ की महिमा का बखान करते हुए, उसे कर्मकाण्ड वाले यज्ञों की अपेक्षा बहुत श्रेष्ठ और आत्मा का कल्याण करने वाला कहा है:

  • विधियज्ञाज्जपयज्ञो विशिष्टो दर्शाभर्गुणैः ।
    उपांशु स्याच्छतगुणः सहस्रो मानसः स्मृतः ॥

    ये पाकयज्ञाश्चत्वारोविधि यज्ञ समन्विताः ।
    सर्वे ते जपयज्ञस्य कलां नाहन्ति षोडशीम ॥
    (मनु स्मृति)

    "दर्श पौणमासरूपकर्म यज्ञों की अपेक्षा जप यज्ञ दस गुणा श्रेष्ठ है। उपांशु-जप सौ गुणा और मानस जप सहस्र गुणा श्रेष्ठ होता है। कर्म यज्ञ के चार पाक-यज्ञ हैं। वे जप-यज्ञ के सोहलवें अंश के बराबर भी नहीं ।"

  • ईश्वर के नाम जप से जो दिव्य आनन्द साधक को निरन्तर आता है, उसे संतों ने अपनी भाषा में ‘नाम खुमारी’ की संज्ञा दी है। इस संबंध में संत सद्गुरु श्री नानक देव जी महाराज ने कहा है :

  • भाँग धतूरा नानका उतर जाय परभात ।
    नाम खुमारी नानका चढ़ि रहे दिन रात ॥

  • संत श्री कबीर दास जी महाराज ने कहा है :

  • 'नाम अमल' उतरै न भाई
    और अमल छिन-छिन चढ़ि उतरै,
    'नाम अमल' दिन बढ़े सवायो ॥

    अतः जब तक यह नाम खुमारी सम्पूर्ण विश्व को आनन्दित नहीं कर देती, शांति केवल कल्पना ही रहेगी। गुरु-शिष्य परम्परा में शक्तिपात दीक्षा का अत्यधिक महत्त्व है। शक्तिपात-दीक्षा हमारे दर्शन का उच्चत्तम दिव्य-विज्ञान है। यह गुरुओं द्वारा दी जाने वाली गुप्तदीक्षा है, जो आदि काल से गुरु-शिष्य परम्परा में चली आ रही है। गुरु, शक्तिपात द्वारा साधक की कुण्डलिनी को जाग्रत कर देते हैं। हमारे शास्त्रों में इसे जगत जननी कहा है। जो ब्रह्माण्ड में है, वही पिण्ड में है। यह दिव्य ज्ञान मात्र हमारे ऋषियों की ही देन है।

  • देहस्थाः सर्व विद्याश्च देहस्था:सर्व देवताः ।
    देहस्थाः सर्व तीर्थानि गुरु वाक्येन लभ्यते ॥
    ब्रह्माण्ड लक्षणं सर्व देह मध्ये व्यवस्थितम् ।।
    (ज्ञान संकलिनी तन्त्र)

  • सागर महि बूंद, बूंद महि सागर ।
    कवणु बुझै विधि जाणै ॥
    (श्री नानक देव जी)

  • बूंद समानी समुंद में, यह जानै सब कोय ।
    समुंद समाना बूंद में, बूझै विरला कोय ॥
    (कबीर)

  • हमारे ऋषियों ने मनुष्य शरीर को विराट स्वरूप प्रमाणित करके उसके अन्दर सम्पूर्ण सृष्टि को देखा। इसके जन्मदाता परमेश्वर का स्थान सहस्रार में और उसकी पराशक्ति (कुंडलिनी) का स्थान मूलाधार के पास है। इन्हीं दोनों के कारण ही सम्पूर्ण सृष्टि की रचना हुई। साधक की कुंडलिनी चेतन होकर सहस्रार में लय हो जाती है, उसी को मोक्ष की संज्ञा दी गई है। इसी सिद्धान्त के अनुसार संत सद्गुरु शक्तिपात दीक्षा से साधक की कुण्डलिनी को जाग्रत करके सहस्रार मे पहुँचाते हैं। शक्तिपात से कुण्डलिनी जाग्रत हो जाती है, तब क्या होता है, इस संबंध में कहा है

  • सुप्त गुरु प्रसादेन यदा जागर्ति कुण्डली ।
    तदा सर्वानी पद्मानि भिदयन्ति ग्रन्थयो पिच ॥
    (स्वात्माराम हठयोग प्रदिपिका)

    "जब गुरुकृपा से सुप्त कुंडलिनी जाग्रत हो जाती है, तब सभी चक्रों और ग्रन्थियों का वेधन होता है।"

  • जाग्रत हुई कुण्डलिनी, सुषुम्ना नाड़ी में से होकर ऊर्ध्व गमन करने लगती है। वह छह चक्रों-मूलाधार,स्वाधिष्ठान, मणिपूरक, अनाहत, विशुद्ध एवं आज्ञाचक्र और तीनों ग्रन्थियों-ब्रह्मग्रंथि, विष्णुगंथि एवं रुद्रग्रंथि का वेधन करती है, और अन्त में समाधि स्थिति, जो कि समत्वबोध की स्थिति है, प्राप्त करा देती है। परन्तु विश्व का कोई भी दर्शन क्रियात्मक ढंग से मोक्ष प्राप्ति का पथ प्रदर्शित नहीं करता। यह अद्वितीय दिव्य ज्ञान तो मात्र सनातन धर्म, वेदान्त दर्शन की ही देन है। विश्व के बाकी धर्म बौद्धिक तर्क एवं शब्द जाल के जंजाल में फंसाकर ईश्वर की सत्ता का आभास दिलाने का प्रयास मात्र करते हैं। वे कोई प्रमाण नहीं दे सकते।

  • दीक्षा प्राप्त किए बिना मनुष्य को उस परमसत्ता की प्रत्यक्षानुभूति हो ही नहीं सकती। इस सिद्धान्त को ईसाई दर्शन भी पूर्णरूप से स्वीकार करता है। गुरु से दीक्षा लेकर यीशु द्विज बना था। इसीलिए उसने इजराइलियों के धर्म गुरु, निकुदेमुस को कहा- "मैं तुझसे सच-सच कहता हूं, यदि कोई नये सिरे से न जन्में तो परमेश्वर का राज्य देखा नहीं सकता।" परन्तु उस समय के धर्मान्ध और क्रूर धर्मगुरुओं ने उस निर्दोष संत का वध मात्र इसीलिए करवा दिया कि उनके पापों का भेद खुल न जाए। ईश्वर ने जो पथ प्रदर्शक यहूदियों को दिया, उसे उन्होंने स्वीकार नहीं किया। इस प्रकार वे गहन अंधकार में फंसे रहे।

  • जब यीशु ने देखा कि इन लोगों में किसी प्रकार का सुधार आने की संभावना नहीं है, तब उसे भविष्यवाणी करनी पड़ी कि "मैं पिता से प्रार्थना करूंगा और वह तुम्हें एक और सहायक देगा, कि वह सर्वदा तुम्हारे साथ रहे।" यह बात इतनी गहन है कि आज ईसाई इसका अर्थ ही नहीं समझते हैं। जिस सहायक के भेजने की बात कही गई है, वह सर्वसिद्ध होगा, और वह शक्तिपात दीक्षा से उनकी कुंडलिनी जाग्रत करके, उन्हें आत्म साक्षात्कार करवायेगा। इस प्रकार सर्वदा साथ रहने की बात सत्य प्रमाणित होगी। उसने स्वर्ग जाने से पहले (मृत्यु के बाद चालीसवें दिन) अपने शिष्यों से मिलकर उन्हें आज्ञा दी- "यरुशलम को न छोड़ो, परन्तु पिता की उस प्रतिज्ञा के पूरा होने की बाट जोहते रहो, जिसकी चर्चा तुम मुझसे सुन चुके हो। क्योंकि जॉहन ने तो पानी में बपतिस्मा दिया है, परन्तु थोड़े दिनों बाद तुम पवित्रात्मा से (में) बपतिस्मा पाओगे।"

  • बाइबिल में जिस आनन्द की बात वर्णित है, वह आनन्द पश्चिम को उस सहायक द्वारा शक्तिपात-दीक्षा (Baptized with the Holy Ghost) देने के बाद आने लगेगा। उस आनन्द की खुमारी के कारण वे साधक हर समय झूमते रहेंगे, और लोग समझेंगे कि उन्होंने शराब पी रखी है। हमारे संतों ने जिसे नाम खुमारी की संज्ञा दी है, उसी नाम खुमारी के कारण वे झूमेंगे। ज्ञान के अभाव में लोगों को भ्रम हो जाएगा कि उन्होंने पी रखी है। इसका वर्णन करते हुए "प्रेरितों का काम" 2:14 से 18 में लिखा है- "पतरस उन ग्यारह के साथ खड़ा हुआ और ऊँचे शब्द से कहने लगा कि हे यहूदियों और हे यरूशलम के सब रहने वालों, यह जान लो और कान लगाकर मेरी बातें सुनो। जैसा तुम समझ रहे हो, ये नशे में हैं, क्योंकि अभी तो पहर ही दिन चढ़ा है। परन्तु यह वह बात है, जो 'योएल' भविष्यवक्ता के द्वारा कही गई है। परमेश्वर कहता है कि अंत के दिनों में ऐसा होगा कि मैं अपना आत्मा सब मनुष्यों पर उड़ेलूँगा और तुम्हारे बेटे और तुम्हारी बेटियाँ भविष्यवाणी करेंगे और तुम्हारे जवान दर्शन देखेंगे, और तुम्हारे पुरनिये (वृद्ध) स्वप्न देखेंगे। वरन् मैं अपने दासों और अपनी दासियों पर भी उन दिनों में अपने आत्मा में से उड़ेलूँगा और वे भविष्यवाणी करेंगे।"

  • बाइबिल के असंख्य संदर्भ ऐसे हैं जिन्हें समझने के लिए अन्तर्मुखी होना पड़ेगा, तभी उनका सही अर्थ समझ में आवेगा। प्रभु ने मुझे युग परिवर्तन के इस संधिकाल में सबसे कठिन कार्य सौंपा है। ऐसा नहीं है कि कार्य की कठिनाई के बारे में, मैं अंधकार में हूँ। मुझे उस परमसत्ता ने सब कुछ दिखा और समझा दिया है। अंतिम नतीजा वही होगा, जो हर युग में होता आया है। प्रारम्भ में जब प्रथम दीपक जलता है तो ऐसा लगता है कि टिमटिमाता दीपक विश्व के अंधकार को, जो कि ठोस बनकर जम गया है, कैसे दूर कर सकेगा? परन्तु जब दीपक से दीपक जलने लगता है, जो जलने वाले दीपकों की संख्या में जिस तेज गति से निरन्तर वद्धि होती है, उससे संसार में अँधेरे का अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है।

  • सैंट जॉहन एक अभूतपूर्व दिव्य व्यक्ति था। मैं उसके जीवन को यीशु से कम महत्त्व का नहीं मानता। उस महान् आत्मा ने भी तो अन्याय के विरूद्ध आवाज उठाकर अपना सिर कटवा लिया था। हेरोदेश उस समय चौथाई देश का राजा था। उसने अपने भाई फिलिप्पुस की पत्नी हेरोदियास को रख लिया था। सैंट जॉहन ने कहा कि उसने यह पाप किया है। इस पर उसे जेल में डाल दिया और बाद में उसका सिर कटवा दिया था। इस प्रकार उसने भी तो यीशु से पहले धर्म के लिए अपने प्राणों की बलि चढ़ा दी थी। उसके प्रकाशितवाक्य में जो कुछ लिखा है उसे आज का ईसाई जगत् समझ ही नहीं सकता। बाइबिल का यह सम्पूर्ण आखिरी भाग पूर्ण रूप से प्रत्यक्षानुभूति और साक्षात्कार का विषय है। अतः अन्तरात्मा की अभिवृद्धि से ही समझा जा सकता है।

  • मैं प्रकाशित वाक्य के कुछ संदर्भ नीचे लिख रहा हूँ, क्या इस पवित्र ग्रन्थ के मानने वाले इनका अर्थ समझने में सक्षम है?

  • प्रकाशित वाक्य 2:16 एवं 17:

  • 2:16 - "सो मन फिरा, नहीं तो मैं तेरे पास शीघ्र ही आकर अपने मुख की तलवार से उनके साथ लडूंगा।

  • 2:17 - . जिसके कान हो, वह सुन ले आत्मा कलीसियाओं से क्या कहता है; जो जय पाए उसको मैं गुप्त मन्ना से दूंगा, और उसे एक श्वेत पत्थर दूंगा और उस पत्थर पर एक नाम लिखा हुआ होगा, जिसके पाने वाले के सिवाय और कोई न जानेगा।"

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