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युग परिवर्तन का अर्थ संसार के प्राणी मात्र के परिवर्तन से है।
19 जून 1988
गुरुदेव श्री रामलालजी सियाग
एवीएसके, जोधपुर के संस्थापक और संरक्षक

युग परिवर्तन का सम्बन्ध सम्पूर्ण संसार से है। पृथ्वी के किसी भाग विशेष के चेतन होने से इसका सम्बन्ध नहीं है। ईश्वरीय सत्ता के अवतरण के बिना 'युग परिवर्तन' असम्भव है। आदि काल से ऐसा होता चला आया है।

  • मैं देख रहा हूँ कि मेरे जीवन के प्रारम्भिक काल से ही तामसिक शक्तियाँ मुझ पर निरन्तर प्रहार करती चली आ रही हैं। प्रारम्भ में तो भयभीत करके रास्ते से हटाने का प्रयास किया। इसमें जब उन्हें सफलता नहीं मिली तो प्रलोभन आदि के रंगीले चित्र दिखा कर आकर्षित करने का प्रयास करती रहीं। जवानी के काल में यह हथकण्डा अपनाया और बचपन में भयभीत करने का। जब ये दोनों हथियार काम नहीं आये तो आजकल 'हितैषी का स्वांग' रचकर गुमराह करने का प्रयास करने में लगी है। मैं देखा रहा हूँ कि उनका यह हथियार भी असफल हो रहा है।

  • उनका अगला कदम मेरे विरोध में प्रचार करने का होगा। मुझे इसका पूर्ण ज्ञान है, यह आखिरी हथियार मेरे लिए सहायक सिद्ध होगा। क्योंकि इनके विरोध से मेरे प्रचार की गति बहुत तेज हो जायेगी। इससे ये तामसिक शक्तियाँ अपना संतुलन खो देंगी। इनके संतुलन खोने का अर्थ है, इनका अन्त। यह आगे होने वाली घटनाओं का चित्र है, जो कुछ होना है, सब अनिवार्य है। इसमें रत्ति भर का भी अन्तर नहीं आ सकता। अन्धेरे-उजाले का यह संघर्ष आदि काल से चला आ रहा है। मेरा कार्यक्षेत्र सार्वभौम है। जितना अन्धकार भारत में है, उतना कहीं नहीं है। अगर मेरा कार्यक्षेत्र भारत तक सीमित होता तो कठिनाइयाँ अधिक होती क्योंकि तामसिक शक्तियों की शक्ति सीमित होती है, जबकि सात्त्विक शक्तियों की शक्ति असीमित।

  • इस संबंध में श्री मां ने स्पष्ट कहा है:

  • "भारत के अन्दर सारे संसार की समस्याएं केन्द्रित हो गई हैं और उनके हल होने पर सारे संसार का भार हल्का हो जायेगा।"

  • भारत में सात्त्विकता की आड़ में असंख्य तामसिक शक्तियाँ, मानव को भ्रमित कर के लूट रही हैं। मुझे अच्छी प्रकार बता दिया गया है कि इन तामसिक शक्तियों की भी ताकत क्षीण हो चुकी है। मामूली सा विरोध करके ये परास्त हो जाएंगी। परन्तु जिन चतुर लोगों ने धर्म को व्यवसाय के रूप में अपना रखा है वे ही अधिक विरोध करेंगे। क्योंकि मेरा कार्य क्षेत्र सार्वभौम है, इसलिए इन धर्म के व्यवसाइयों की पोल संसार के सामने खुल जायेगी।

ऐसी आराधना से लोग पूर्ण रूप से विमुख हो चुके हैं, जो प्रत्यक्ष परिणाम न दे। इस युग का मानव अब अगले जन्म तक इन्तजार करने में विश्वास नहीं रखता। वह तो चाहता है कि जो कुछ भी वह करता है, उसके बारे में उसे प्रत्यक्षानुभूति होनी चाहिए कि उसका कुछ न कुछ परिणाम निकल रहा है।

- समर्थ सद्‌गुरुदेव श्री रामलाल जी सियाग

  • इस युग में प्रायः सभी धर्मों की आराधना बहिर्मुखी है तथा केवल कर्मकाण्ड तक ही सीमित है जिसका परिणाम निकलना असम्भव है। थोड़ी बहुत आराधनाएँ अन्तर्मुखी है परन्तु उनकी हद माया के क्षेत्र तक यानि कि आज्ञाचक्र के नीचे तक ही है। हमारे धर्म ग्रन्थों में स्पष्ट लिखा है कि मूलाधार से लेकर आज्ञाचक्र तक माया का क्षेत्र है। इससे भौतिक लाभ तो मिल सकता है, परन्तु आध्यात्मिक लाभ मिलना असम्भव है। आज्ञाचक्र का भेदन करके ही सात्त्विक अध्यात्म जगत् में प्रवेश किया जा सकता है।

  • गीता के 8वें अध्याय के 16वें श्लोक में भगवान् ने स्पष्ट कहा है :

  • "हे अर्जुन, ब्रह्मलोक से लेकर सबलोक पुनरावर्ती स्वभाव वाले हैं, परन्तु हे कुन्तीपुत्र मेरे को प्राप्त हो कर पुनर्जन्म नहीं होता।"

  • मेरे से सम्बन्धित लोगों को प्रत्यक्ष परिणाम मिल रहे हैं क्योंकि यह परमसत्ता की शक्ति का ही प्रभाव है, जो कि सार्वभौम सत्ता है। अतः इस पर किसी धर्म विशेष या जाति विशेष का कोई एकमात्र अधिकार नही है। मुझे स्पष्ट बता दिया गया है कि यह शक्ति संसार के मानव मात्र के कल्याण के लिए प्रकट हो रही है अतः इसका प्रसार विश्व स्तर पर होगा। हाँ, इसका केन्द्र तो निश्चित रूप से भारत ही रहेगा।

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