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वीर जननी का आशीर्वाद
3 फरवरी 1988
गुरुदेव श्री रामलालजी सियाग
एवीएसके, जोधपुर के संस्थापक और संरक्षक

3 जनवरी 1988 को मैं भौतिक रूप से अनाथ हो गया। उस दिन मेरी माँ का स्वर्गवास हो गया। तीन वर्ष की उम्र में पिताजी का स्वर्गवास हो जाने के कारण, मेरी जननी ने दोहरा भार वहन करते हुए मुझे कभी भी पिताजी का अभाव महसूस नहीं होने दिया। अपना पूरा जीवन उसने रणभूमि में जूझते हुए बिताया। पूरे जीवन में उसके अन्दर, मैंने कभी निराशा के भाव नहीं देखे। एक वक्त रूखा-सूखा खाकर भी उसने रणभूमि में हार नहीं मानी। यहाँ तक कि आखिरी समय में भी मृत्यु का वरण करने के लिये बहादुरी से आगे बढ़कर उसका स्वागत किया। मृत्यु भय से संसार में न डरने वाले चन्द लोग ही जन्मे हैं।

  • मैंने अनायास या यूं समझो कि किसी अज्ञात शक्ति की प्रेरणा से उसकी हर आज्ञा का पालन किया। भारत भर के सभी धार्मिक तीर्थ स्थानों पर दो-दो, तीन-तीन बार उसे ले गया। उस समय मुझे ईश्वर की सत्ता तक में विश्वास नहीं था, परन्तु फिर भी उसके हर आदेश का पालन करते हुए, मैंने उसे तीर्थों का भ्रमण करवाया। उसके रहते, मैं नहीं समझा परन्तु अब समझ रहा हूँ कि मेरी आध्यात्मिक उन्नति का कारण मेरी जननी का आशीर्वाद मात्र है। उसका अदम्य साहस और वीरता का गुण ही मेरे खून में मौजूद होने के कारण, मैं आज इस स्थिति में पहुँच सका हूँ।

  • उसकी मृत्यु ने मुझे पूर्ण रूप से अपने ध्येय तक पहुँचने की हिम्मत बँधाई। ऐसी विजयी और साहसी जननी के खून से मेरी उत्पत्ति हुई। अब मैं अच्छी तरह समझ रहा हूँ कि संसार की कोई शक्ति मेरा रास्ता नहीं रोक सकती है। मैं अबाधगति से अपने पथ पर बढ़ता हुआ अपने गन्तव्य तक पहुँचूँगा ही। इसका पूर्ण श्रेय केवल मेरी वीर जननी को ही है।

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