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शब्द से सर्वभूतों की उत्पत्ति
2 मई 1988
गुरुदेव श्री रामलालजी सियाग
एवीएसके, जोधपुर के संस्थापक और संरक्षक

संसार भर के प्रायः सभी धर्म इस सिद्धान्त को स्वीकार करते हैं कि शब्द से ही सर्वभूतों की उत्पत्ति हुई है। हिन्दू दर्शन के अनुसार 'ऊँ' से सृष्टि की उत्पत्ति हुई है। भगवान् श्रीकृष्ण ने गीता में इस सम्बन्ध में 8वें अध्याय के 13वें श्लोक तथा 17 वें अध्याय के 23वें तथा 24वें श्लोक में स्पष्ट कहा है-

  • ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन् ।
    यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम् ।। (8:13)

    जो पुरुष 'ॐ' ऐसे (इस) एक अक्षररूप ब्रह्म को उच्चारण करता हुआ (और उसके अर्थस्वरूप) मेरे को चिन्तन करता हुआ, शरीर को त्याग कर जाता है, वह पुरुष परम गति को प्राप्त होता है।

  • तत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्मृतः ।
    ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिताः पुरा ।। (17:23)

    'ऊँ' तत् सत् ऐसे तीन प्रकार का सच्चिदानन्दघन ब्रह्म का नाम कहा है। उसी से सृष्टि के आदिकाल में ब्राह्मण और वेद तथा यज्ञादिक रचे गये हैं।

  • तस्मादोमित्युदाहृत्य यज्ञदानतपःक्रियाः ।
    प्रवर्तन्ते विधानोक्ताः सततं ब्रह्मवादिनाम् ।। (17:24)

    इसलिए वेद का कथन करने वाले श्रेष्ठ पुरुषों की शास्त्रविधि से नियत की हुई यज्ञ, दान और तपरूप क्रियाएँ सदा 'ऊँ' ऐसे (इस परमात्मा के नाम को) उच्चारण करके (ही) आरम्भ होती हैं।

  • इसाई धर्म में भी संसार की उत्पत्ति शब्द से मानते हैं। इस सम्बन्ध में बाइबिल स्पष्ट कहती है- "आदि में वचन (शब्द) था। और वचन (शब्द ) परमेश्वर के साथ था। और वचन (शब्द) परमेश्वर था। यही आदि में परमेश्वर के साथ था। सब कुछ उसी के द्वारा उत्पन्न हुआ और जो कुछ उत्पन्न हुआ है, उसमें से कोई भी वस्तु उसके बिना उत्पन्न न हुई। उसमें जीवन था और वह जीवन मनुष्यों की ज्योति थी। और ज्योति अन्धकार में चमकती है और अन्धकार ने उसे ग्रहण नहीं किया । इसी प्रकार यहूदी मत भी संसार की उत्पत्ति शब्द से मानते हैं। यहूदियों के सृष्ट्युत्पत्ति-प्रकरण में कहा गया है- "समुद्र के ऊपरीतल पर अन्धकार था और ईश्वर की आत्मा जलों पर विचरण कर रही थी। शब्द के द्वारा उसने समुद्र को अंतरिक्ष से विभक्त किया, जिसके परिणाम स्वरूप अब यहाँ दो समुद्र हैं। एक पार्थिव जो अंतरिक्ष के नीचे है, दूसरा द्युलोकीय जो अंतरिक्ष के ऊपर है।"

  • इस सम्बन्ध में वेदों के रहस्य को स्पष्ट करते हुए महर्षि श्री अरविन्द ने कहा है-

  • “इस सार्वभौम विश्वास को या इस वैश्व रूपक को गुह्यवादियों ने पकड़ा और उसमें अपने समुद्र मनोवैज्ञानिक मूल्यों को भर दिया। एक अंतरिक्ष की जगह उन्होंने दो को देखा, - एक पार्थिव और दूसरा दिव्य। दो सागरों के स्थान पर उनकी अनावृत द्रष्टि के सामने तीन सागर प्रसारित हो उठे। जो कुछ उन्होंने देखा, वह एक ऐसी वस्तु थी जिसे मानव कभी आगे चलकर देखेगा। जब प्रकृति और जगत् को देखने की उसकी भौतिक दृष्टि आंतरात्मिक दृष्टि में बदल जायेगी। उनके नीचे उन्होंने देखी अगाध रात्रि और तरंगित होता हुआ तमस्, अन्धकार में छिपा अंधकार, निश्चेतन समुद्र जिससे ‘एकमेव’ के शक्तिशाली तमस् के द्वारा उनकी सत्ता उद्भूत हुई थी। उनके ऊपर उन्होंने देखा प्रकाश और मधुरता का दूरवर्ती समुद्र जो उच्चतम व्योम है, आनन्द स्वरूप विष्णु का परम पद है, जिसकी ओर उनकी आकर्षित सत्ता को आरोहण करना है। उनमें से एक था, अन्धकारपूर्ण आकाश, आकारहीन, जड़, निश्चेतन असत्; दूसरा था, ज्योतिर्मय व्योम सदृश सर्वचेतन एवं निश्चेतन सत्। ये दोनों "एकमेव" के ही विस्तार थे। एक अन्धकारमय दूसरा प्रकाशमय। इन दो अज्ञान अनन्तताओं के अर्थात अनन्त संभाव्य शून्य और अनन्त परिपूर्ण 'क्ष' के बीच उन्होंने अपने चारों ओर अपनी आँखों के सामने, नीचे ऊपर नित्य विकसनशील चेतन सत्ता का तीसरा समुद्र देखा। एक प्रकार की असीम तरंग देखी, जिसका उन्होंने एक साहसपूर्ण रूपक के द्वारा इस प्रकार वर्णन किया कि वह द्युलोक से परे परमोच्च समुद्रों तक आरोहण करती या उनकी ओर प्रवाहित होती है। यह है वह भयानक समुद्र जो हमें पोत द्वारा पार करना है।"

मेरे साथ निरन्तर आध्यात्मिक सत्संग करने वाले उपर्युक्त व्याख्या के अनुसार आंतरात्मिक दृष्टि से सब कुछ देख रहे हैं यानि प्रत्यक्षानुभूति कर रहे हैं। लगता है वेदों की सच्चाई हम संसार के सामने शीघ्र प्रमाणित कर सकेंगे।

- समर्थ सद्‌गुरुदेव श्री रामलाल जी सियाग

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