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सत्य का संहारक युग
गुरुदेव श्री रामलालजी सियाग
एवीएसके, जोधपुर के संस्थापक और संरक्षक

कलियुग के गुणधर्म के कारण, आज विश्व भर के अध्यात्म-जगत् से सत्य प्रायः लोप हो गया है। आज विश्व के प्रायः सभी धर्मों के धर्माचार्यों की कथनी और करनी में भारी अंतर है। यही कारण है, आज विश्व भर में अधिकतर लोगों का धर्म पर से विश्वास उठ चुका है। जैसा धार्मिक होने का हम ढिंढोरा पीट रहे हैं, प्रायः विश्व के सभी धर्मों के धर्माचार्य भी वैसा ही कर रहे हैं।आज संसार के अन्दर जितना शोर धार्मिक जगत् के लोग मचा रहे हैं, वैसा पहले कभी सुनने में नहीं आया। आकाशवाणी और दूरदर्शन पर प्रायः रोज सुबह-शाम ‘विश्वास करो, विश्वास करो’ की ध्वनि से वायुमंडल गूंज उठता है। इसके विपरीत विश्व में अशान्ति निरंतर बढ़ रही है। विश्व की यह अशान्ति हमें धर्माचार्यों पर, उनकी विश्वसनीयता पर प्रश्न चिह्न लगाने को विवश कर रही है।

  • आखिर परिणाम न मिलने के कारण का पता लगाये बिना तो समस्या का समाधान नहीं होगा। हम इतिहास पर नजर डालें तो देखते हैं कि विश्वभर में असंख्य साधु-संतों और सच्चे लोगों को विभिन्न प्रकार की यातनाएँ दी गईं। धर्म की गिरावट यहाँ तक हो गई कि सच्चे लोगों के प्राण तक ले लिए गए। परन्तु सच्चे लोगों का साहस देखो, मृत्यु को स्वीकार कर लिया, परन्तु सत्य पर अडिग रहे। दूसरी तरफ इस युग के लोगों की गिरावट पराकाष्ठा तक पहुँच गई। सत्य कहने पर जिसकी हत्या करते हैं, मरने के बाद उन्हीं हत्यारों के वंशज उसको पूजते हैं।

  • महान् आत्मा यीशु ने उस समय के धर्माचार्यों को कहा है- 'हे कपटी शास्त्रियों और फरीसियों! तुम पर हाय ! तुम भविष्यवक्ताओं की कब्रें संवारते हो और धर्मियों की कब्रें बनाते हो।' कलियुग के गुणधर्म का प्रभाव सम्पूर्ण विश्व पर प्रायः एक जैसा ही पड़ा है। क्रूर, निर्दयी, और स्वार्थी वृत्तियाँ इतनी प्रबल हो गई हैं कि मानवता को कुचलते हुए किसी को तनिक भी दया नहीं आती।

  • कोई भी संत पुरुष विश्व में प्रकट होता है तो उसका पग-पग पर अकारण विरोध होता है। सभी दुष्ट वृत्तियाँ मिलकर उसे कुचलने का प्रयास करती हैं, उनका वश चलने पर उस साधु पुरुष की हत्या तक कर दी जाती है। वही पुरुष जब ब्रह्मलीन हो जाता है, तो वे वृत्तियाँ गिरगिट की तरह रंग बदलने में कुछ भी संकोच नहीं करतीं। इस प्रकार उस की त्याग, तपस्या और बलिदान का भरपूर लाभ उठाती हैं। जो लोग कठिन समय में उस संत का साथ देते हैं, उन्हें दुत्कार कर दूर भगा देती हैं। इस प्रकार उस महान् आत्मा के नाम से जो मिशन चलता है, उस पर पूर्णरूप से अवसरवादी लोगों का कब्जा हो जाता है। इस प्रकार असंख्य संतों के नाम से चलने वाले मिशनों पर पूर्ण रूप से अवसरवादी लोगों का जमावड़ा है।

  • मुझे कुछ दिन पूर्व ईसाई मिशन की प्रचार सामग्री की एक पुस्तक में कुछ पढ़ने को मिला। मुझे उसे पढ़कर भारी वेदना हुई। ऐसे सुन्दर ढंग से चर्चों में स्वेच्छाचारी जीवन बिताने की छूट ले ली है, जिसे पढ़कर मैं हैरान रह गया। अघोषित चार्वाकवाद पर पर्दा डालते हुए कहा है- 'परमेश्वर का परिवार पापियों से मिलकर बना है। यदि आप परमेश्वर के परिवार के लोगों में पूर्ण या लगभग पूर्ण लोग देखने की अपेक्षा करते हैं तो आपको निराश होना पड़ेगा।' इसे पढ़ते ही १ कुरिन्तियों के ५:१एवं २ बात अचानक याद आ गई। प्रायः सभी धर्मों के मिशनों पर कलियुग का प्रभाव कमोबेश एक जैसा ही पड़ा है।

  • मैं क्योंकि कर्ता मात्र ईश्वर को ही मानता हूँ, संसार के लोग तो उसकी कठपुतली हैं, उन्हें भ्रमाते हुए वह परमसत्ता अपनी इच्छानुसार नचा रही है अतः मैं किसी धर्म के धर्माचार्यों को दोष नहीं देता हूँ। वैसे अनेक पवित्र संत प्रकट हुए हैं परन्तु मैं, मात्र दो ऐसे महान् आत्माओं के जीवनकाल का वर्णन करना चाहूँगा, जिन्हें आज सम्पूर्ण विश्व श्रद्धा से पूजता है। वे हैं - महान् आत्मा यीशु मसीह और स्वामी विवेकानंद जी।

महान् आत्मा यीशु ने जिस प्रकार नीली छतरी के नीचे अपना सम्पूर्ण जीवन कष्ट और यातनाएँ सहन करते हुए बिताया, ऐसे उदाहरण दुर्लभ हैं। उसने मानवता में जो चमत्कारपूर्ण कार्य कर दिखाये, वैसे कार्यों को करने की आज का विज्ञान कल्पना तक नहीं कर सकता। परन्तु संसार के क्रूर लोगों ने जो प्रतिफल दिया, वह जग जाहिर है। उसका दोष इतना ही था कि उसने सच्ची बात कह दी कि 'मैं ईश्वर का पुत्र हूँ।' ईश्वर की आज्ञा से ही मैंने ये चमत्कारपूर्ण कार्य किए। अगर मेरी बात असत्य है तो संसार का कोई धर्म गुरु ऐसे कार्य करके दिखावे। एकमात्र इस दोष के कारण, उस समय के धर्माचार्यों ने उस निर्दोष पवित्रात्मा को मृत्यु दण्ड दिलवा दिया। और आज, उन्हीं धर्माचार्यों के वंशज कण्ठ फाड़-फाड़ कर, उसे ईश्वर का पुत्र स्वीकार कर रहे हैं। क्या एक ही पाप की दो सजा हो सकती है? ईश्वर के घर न देर है और न अन्धेर; पाप का घड़ा भरने पर फूटता ही है।
  • यीशु मसीह के उस समय के धर्माचार्यों के साथ कैसे मधुर संबंध थे, उसकी सच्ची तस्वीर बाइबिल के सेंट मैथ्यु के २३:१३से ३९ को देखने से मिलती है- 'हे कपटी शास्त्रियों और फरीसियों! तुम पर हाय ! तुम मनुष्यों के विरोध में स्वर्ग के राज्य का द्वार बंद करते हो, न तो आप ही उसमें प्रवेश करते हो और न उसमें प्रवेश करने वालों को प्रवेश करने देते हो। हे कपटी शास्त्रियों और फरीसियों ! तुम पर हाय ! तुम एकजन को अपने मत में लाने के लिए सारे जल और थल में फिरते हो, और वह मत में आ जाता है तो उसे अपने से दूना नारकीय बना देते हो। हे अन्धे अगुवा, तुम पर हाय ! जो कहते हो कि यदि कोई मंदिर की शपथ खाए तो कुछ नहीं, परन्तु यदि कोई मंदिर के सोने की सौंगध खाए तो उससे बन्ध जाएगा। हे मूर्खों और अन्धों, कौन बड़ा है सोना या वह मंदिर; जिससे सोना पवित्र होता है? फिर कहते हो यदि कोई वेदी की शपथ खाए तो कुछ नहीं, परन्तु जो भेंट उस पर है, यदि कोई उसकी शपथ खाएगा तो बंध जाएगा। हे अन्धों, कौन बड़ा है, भेंट या वेदी, जिससे भेंट पवित्र होती है? इसलिए जो वेदी की शपथ खाता है, वह उसकी और जो उस पर है उसकी भी शपथ खाता है और जो मंदिर की शपथ खाता है वह उसकी और उसमें रहने वाले की भी शपथ खाता है । और जो स्वर्ग की शपथ खाता है, वह परमेश्वर के सिंहासन की भी शपथ खाता है। हे कपटी शास्त्रियों और फरीसियों, तुम पर हाय ! तुम पोदीने, सौंफ और जीरे का दसवां अंश देते हो, परन्तु तुमने व्यवस्था की गंभीर बातों की अर्थात् न्याय, दया और विश्वास को छोड़ दिया है। चाहिए तो यह था कि उन्हें भी करते रहते, और उन्हें भी न छोड़ते। हे अंधे अगुओं, तुम मच्छर को तो छानते हो और ऊँट को निगल जाते हो। हे कपटी शास्त्रियों और फरीसियों ! तुम पर हाय! तुम कटोरे और थाली को ऊपर-ऊपर से तो माँजते हो परन्तु वे भीतर असंयम से भरे हुए हैं। हे अन्धे फरीसो! पहले कटोरे और थाली को भीतर से माँज कि वे बाहर से भी स्वच्छ हों । हे कपटी शास्त्रियों और फरीसियों! तुम पर हाय, तुम चूना फिरी हुई कब्रों के समान हो जो ऊपर से तो सुन्दर दिखाई देती हैं,परन्तु भीतर मुर्दो की हड्डियों और सब प्रकार की मलिनता से भरी हुई हैं। इसी रीति से तुम भी ऊपर से मनुष्यों को धर्मी दिखाई देते हो, परन्तु भीतर कपट और अधर्म से भरे हो। हे कपटी शास्त्रियों और फरिसियो ! तुम पर हाय, तुम भविष्यवक्ताओं की कब्र सँवारते हो और धर्मियों की कब्रें बनाते हो।और कहते हो कि यदि हम अपने बाप-दादों के दिनों में होते तो भविष्यवक्ताओं की हत्या में उनके साझी न होते। इससे तो तुम अपने पर, आप ही गवाही देते हो, कि तुम भविष्यवक्ताओं के घातकों की सन्तान हो।सो तुम अपने बाप-दादों के पाप का घड़ा भर दो। हे साँपो हे करैतों के बच्चों, तुम नरक के दण्ड से क्योंकर बचोगे? इसलिए देखो, मैं तुम्हारे पास भविष्यवक्ता भेजता हूँ, और तुम उनमें से कितनों को मार डालोगे और क्रूस पर चढ़ाओगे और कितनों को अपनी सभाओं में कोड़े मारोगे, और एक नगर से दूसरे नगर में खदेड़ते फिरोगे। जिससे धर्मी हाबील से लेकर विरिक्याह के पुत्र जकरयाह तक, जिसे तुमने मंदिर और वेदी के बीच में मार डाला था, जितने धर्मियों का लहु पृथ्वी पर बहाया गया है, वह सब तुम्हारे सिर पर पड़ेगा। मैं तुम से सच कहता हूँ, ये सब बातें इस समय के लोगों पर आ पड़ेगी। हे यरुशलेम, हे यरुशलेम तू जो भविष्यवक्ताओं को मार डालता है और जो तेरे पास भेजे गये, उन्हें पत्थर वाह कहता है, कितनी ही बार मैंने चाहा कि जैसे मुर्गी अपने बच्चों को अपने पँखों के नीचे इकट्ठे करती है, वैसी ही मैं भी तेरे बालकों को इकट्ठे कर लूँ, परन्तु तुमने न चाहा।देखो! तुम्हारा घर तुम्हारे लिए उजाड़ छोड़ा जाता है क्योंकि मैं तुमसे कहता हूँ कि अब से जब तक तुम न कहोगे, कि धन्य है वह, जो प्रभु के नाम से आता है।तब तक तुम मुझे फिर कभी न देखोगे।'

  • स्वामी श्री विवेकानंद जी की ही देन है, जो सम्पूर्ण विश्व आज हमारे वैदिक दर्शन की ओर तेजी से झुक रहा है। स्वामी जी ने शिकागो धर्म-महासभा में सन् 1893 में वैदिक दर्शन की विजय पताक फहराई थी। आज भारत ही नहीं सम्पूर्ण विश्व में, स्वामी जी का नाम बहुत ही श्रद्धा से लिया जाता है। परन्तु स्वामी जी को अपने जीवन काल में यीशु मसीह की तरह अपने देश के लोगों से सहयोग और प्रेम नहीं मिला।इस तथ्य का प्रमाण; स्वामी जी के अमेरिका से लिखे पत्र देते हैं। अतः मैं उन पत्रों को स्वामी जी की भाषा में ही यथावत लिख रहा हूँ। इन पत्रों से उस समय के आध्यात्मिक जगत् में कार्य करने वाले लोगों की वस्तु स्थिति का भान होता है।

  • दिनांक 28/12/1893 को शिकागो से लिखा पत्र -

  • 'भारत के लाख-लाख अनाथों के लिए कितने लोग रोते हैं? हे भगवान्! क्या हम मनुष्य हैं ? तुम लोगों के घरों के चतुर्दिक जो पशुवत् भंगी डोम हैं, उनकी उन्नति के लिए क्या कर रहे हैं? उनके मुँह में एक ग्रास अन्न देने के लिए क्या करते हो? बताओ न? उन्हें छूते भी नहीं और उन्हें दूर-दूर कह कर भगा देते हो। क्या हम मनुष्य हैं? वे हजारों साधु-ब्राह्मण भारत की नीच, दलित, दरिद्र जनता के लिए क्या कर रहे हैं? 'मत छू'-'मत छू' बस यही रट लगाते हैं। उनके हाथों हमारा सनातन धर्म कैसे तुच्छ और भ्रष्ट हो गया है। अब हमारा धर्म किसमें रह गया है? केवल छुआछूत में, 'मुझे छूओं नहीं, 'छूओं नहीं।' (द कम्पलीट वर्कस् ऑफ स्वामी विवेकानंद-वॉल्युम-5)

  • दिनांक 24 जनवरी 1894 को शिकागो से लिखा पत्र -

  • 'जहाँ तक अमेरिकी महिलाओं का प्रश्न है, उनकी कृपा के लिए मैं अपनी कृतज्ञता प्रकट करने में असमर्थ हूँ। भगवान् उनका भला करे। इस देश के प्रत्येक आन्दोलन की जान महिलाएँ हैं और राष्ट्र की समस्त संस्कृति का प्रतिनिधित्व करती हैं, क्योंकि पुरुष तो अपने ही शिक्षा लाभ में अत्यधिक व्यस्त है।' (द कम्पलीट वर्कस् ऑफ स्वामी विवेकानंद-वॉल्युम-5)

  • अमेरिका से ही 1894 में खोतड़ी के राजा को लिखा पत्र -

  • 'अमेरिकन महिलाओं! सौ जन्म में भी, मैं तुम से उऋण न हो सकूँगा। मेरे पास तुम्हारे प्रति कृतज्ञता ज्ञापन करने की भाषा नहीं है। प्राच्य अतिशयोक्ति ही प्राच्यवासी मानवों की आन्तरिक कृतज्ञता प्रकट करने की एक मात्र भाषा है-'यदि समुद्र मसि-पात्र हिमालय पर्वत मसि, पारिजात वृक्ष की शाखा लेखनी तथा पृथ्वी पत्र हो तथा स्वयं सरस्वती लेखिका बनकर अनन्तकाल तक लिखती रहे, फिर भी तुम्हारे प्रति मेरी कृतज्ञता प्रकट करने में ये सब समर्थ न हो सकेंगे।' ( द कम्पलीट वर्कस् ऑफ स्वामी विवेकानंद-वॉल्युम-6)

    स्वामी जी की उपर्युक्त व्याख्या स्पष्ट करती है कि अमेरिका की सम्पन्नता का मुख्य कारण उस देश की गृहलक्ष्मियाँ ही हैं। विश्व के कुछ देश ईर्ष्यावश कुछ भी कहें, जिस देश में ऐसी नारियाँ होंगी, उस देश की सम्पन्नता अक्षय होगी।

  • 3 मार्च 1894 को लिखा पत्र -

  • 'तुमने मांस भोजी क्षत्रियों की बात उठाई है। क्षत्रिय लोग चाहे मांस खाएँ, वे ही हिन्दू धर्म की उन सब वस्तुओं के जन्मदाता हैं, जिनको तुम महत्त और सुन्दर देखते हो। उपनिषद किसने लिखी थी? राम कौन और कृष्ण कौन थे? बुद्ध कौन थे? जैनों के तीर्थंकर कौन थे? जब कभी क्षत्रियों ने उपदेश दिया, उन्होंने सभी को धर्म पर अधिकार दिया। और जब कभी बाह्मणों ने कुछ लिखा, उन्होंने औरतों को सब प्रकार के अधिकारों से वंचित करने की चेष्टा की। गीता या व्यास सूत्र पढ़ो या किसी से सुन लो, गीता में मुक्ति की राह पर सभी नर-नारियों, सभी जातियों और सभी वर्गों को अधिकार दिया गया है, परन्तु व्यास गरीब शुद्रों को वंचित करने के लिए वेद की मनमानी व्याख्या करने की चेष्टा करते हैं। क्या ईश्वर तुम जैसा मूर्ख है कि एक टुकड़े मांस से उसकी दया रूपी नदी के प्रवाह में बाधा खाड़ी हो जायेगी। अगर वह ऐसा ही है, तो उसकी मोल एक फूटी कौड़ी भी नहीं।' (- द कम्पलीट वर्कस् ऑफ स्वामी विवेकानंद-वॉल्युम-4)

  • 19 मार्च 1894 को शिकागो से लिखा पत्र -

  • 'हम जैसे कूपमण्डूक दुनिया में नहीं हैं। कोई भी नई चीज किसी देश से आवे, तो अमेरिका उसे सबसे पहले अपनाएगा। और हम? अजी, हमारे ऐसे ऊँचे खानदान वाले दुनिया में और हैं ही नहीं।हम तो आर्यवंशी जो ठहरे ! कहाँ हैं वह आर्यवंश उसे तो हम जानते ही नहीं। एक लाख लोगों के दबाने से तीस करोड़ लोग कुत्ते के समान घूमते हैं, और वे आर्यवंशी हैं !'

  • 19 मार्च 1894 को ही शिकागो से लिखा एक पत्र -

  • जिस देश में करोड़ों मनुष्य महुआ खाकर दिन गुजारते हैं, और दस-बीस लाख साधु और दस-बारह करोड़ ब्राह्मण, उन गरीबों का खून चूसकर पीते हैं, और उनकी उन्नति के लिए कोई चेष्टा नहीं करते, क्या वह देश है या नरक? क्या यह धर्म है या पिशाच का नृत्य? भाई इस बात को गौर से समझो। मैं भारत को घूम-घूमकर देख चुका हूँ और इस देश को भी देखा है।क्या बिना कारण, कहीं कार्य होता है? क्या बिना पाप के सजा मिल सकती है? (द कम्पलीट वर्कस् ऑफ स्वामी विवेकानंद-वॉल्युम-6)

  • अगस्त 1894 में अमेरिका से लिखा पत्र -

  • वास्तव में भारत ने मेरे लिए जो किया उससे कहीं अधिक मैंने भारत के लिए किया है। वहाँ तो मुझे रोटी के एक टुकड़े के लिए डलिया भर गालियाँ मिलती हैं। मैं कहीं भी क्यों न जाऊँ, प्रभु मेरे लिए काम करने वालों के दल के दल भेज देता है। वे लोग भारतीय शिष्यों की तरह नहीं हैं, अपने गुरु के लिए प्राणों तक की बाजी लगा देने को प्रस्तुत हैं। पाश्चात्य देशों में प्रभु क्या करना चाहते हैं, यह तुम हिन्दुओं को कुछ ही वर्षों में देखने को मिलेगा। तुम लोग प्राचीन काल के यहूदियों जैसे हो, और तुम्हारी स्थिति नाँद में लेटे हुए कुत्ते की तरह है,जो न खुद खाता है, और न दूसरों को खाने देना चाहता है। तुम लोगों में किसी प्रकार की धार्मिक भावना नहीं है, रसोई ही तुम्हारा ईश्वर है तथा हंडिया बर्तन ही तुम्हारा शास्त्र। अपनी तरह असंख्य सन्तानोत्पादन में ही तुम्हारी शक्ति का परिचय मिलता है। ( द कम्पलीट वर्कस् ऑफ स्वामी विवेकानंद-वॉल्युम-5)

  • 9 सितम्बर 1894 को पेरिस से लिखा पत्र -

  • मैं जैसे भारत का हूँ, वैसे ही समग्र जगत् का भी हूँ। इस विषय को लेकर मनमानी बातें बनाना निरर्थक है। मुझसे जहाँ तक हो सकता था, मैंने तुम लोगों की सहायता की है, अब तुम्हें स्वयं ही अपनी सहायता करनी चाहिए। ऐसा कौन सा देश है जो कि मुझ पर विशेष अधिकार रखता है? क्या मैं किसी जाति के द्वारा खरीदा हुआ दास हूँ? अविश्वासी नास्तिकों, तुम लोग ऐसी व्यर्थ की मूखर्तापूर्ण बातें मत बनाओ। मैंने कठोर परिश्रम किया है और जो धन मिला है, उसे मैं कलकत्ते और मद्रास भेजता रहा हूँ। यह सब करने के बाद, अब मुझे उन लोगों के मूर्खतापूर्ण निर्देशानुसार चलना होगा? क्या तुम्हें लज्जा नहीं आती? मैं उन लोगों का किस बात का ऋणी हूँ? क्या मैं उनकी प्रशंसा की कोई परवाह करता हूँ या उनकी निंदा से डरता हूँ? बच्चे! मैं एक ऐसे विचित्र स्वभाव का व्यक्ति हूँ कि यह पहचानना तुम लोगों के लिए भी अभी संभव नहीं है। तुम अपना काम करते रहो।नहीं कर सकते तो चुपचाप बैठ जाओ। अपनी मूर्खता के बल पर मुझसे अपनी इच्छानुसार कार्य कराने की चेष्टा न करो। मुझे किसी की सहायता की आवश्यकता नहीं; जीवन भर मैं ही दूसरों की सहायता करता रहा। श्रीरामकृष्ण परमहंस के कार्यो के लिए सहायता प्रदान करने के लिए जहाँ के निवासी दोचार रुपये भी एकत्र करने की शक्ति नहीं रखते हैं, वे लोग लगातार व्यर्थ की बातें बना रहे हैं और उस व्यक्ति पर अपना हुक्म चलाना चाहते हैं, जिसके लिए उन्होंने कभी कुछ नहीं किया; प्रत्युत जिसने उन लोगों के लिए जहाँ तक हो सकता था, सब कुछ किया।"जगत् ऐसा ही अकृतज्ञ है।" क्या तुम यह कहना चाहते हो कि ऐसे जातिभेद, जर्जरित, कुसंस्कार युक्त, दयारहित, कपटी, नास्तिकों एवं कायरों में से जो केवल शिक्षित हिन्दुओं में ही पाये जा सकते हैं, एक बनकर जीने मरने के लिए, मैं पैदा हुआहूँ? मैं कायरतासे घृणा करता हूँ। कायर तथा मूर्खतापूर्ण बकवासों के साथ, मैं अपना सम्बध नहीं रखाना चाहता। किसी प्रकार की राजनीति में मुझे विश्वास नहीं है। ईश्वर तथा सत्य ही जगत् में एकमात्र राजनिति है, बाकी सब कूड़ा करकट है।' (द कम्पलीट वर्कस् ऑफ स्वामी विवेकानंद-वॉल्युम-5)

  • आज से करीब सौ साल पहले हमारे देश की धार्मिक दृष्टि से क्या स्थिति थी, स्वामीजी के उपर्युक्त पत्रोंसे स्पष्ट होती है।पिछले सौ सालों में हमारे धार्मिक जगत् में युग के गुणधर्म के कारण कुछ गिरावट ही आयी है। जिनके वंशजों ने स्वामीजी के साथ कैसा व्यवहार किया, परन्तु आज संपूर्ण देशवासी स्वामी जी के गुणगान करते नहीं थकते। इसी प्रकार की अकर्मण्य एवं स्वार्थीवृत्ति ने सनातन धर्म को रसातल में पहुँचा दिया है। इसमें मैं कलियुग के गुणधर्म को ही दोषी मानता हूँ। मनुष्य तो कठपुतली है, वह परमसत्ता जिस प्रकार नचाना चाहती है नचा रही है। ऐसा लगता है ईसाई जगत् अपने ही धार्मिक ग्रंथ की भविष्यवाणियों से ही अत्यधिक भयभीत है। उनके अन्दर अन्तर्द्वन्द छिड़ गया है। जीवन में यही एक स्थिति ऐसी है, जिसके छिड़ जाने से मनुष्य स्वयं अपने ही प्रयासों से खत्म हो जाता है।

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