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मोक्ष के प्रति इस युग का मानव उदासीन क्यों?
गुरुदेव श्री रामलालजी सियाग
एवीएसके, जोधपुर के संस्थापक और संरक्षक

'मोक्ष' शब्द इस कलियुग में मात्र एक काल्पनिक स्थिति का सूचक है। इस समय सभी धर्माचार्य, शास्त्रों में वर्णित बातों को बौद्धिक तर्क और शब्दजाल के सहारे पाप-पुण्य और स्वर्ग-नरक का काल्पनिक भय दिखाकर, समझाने का असफल प्रयास कर रहे हैं। हमारे धर्म के धर्माचार्य अतीत का गुणगान करते हुए त्रेता और द्वापर युग के साधकों का उदाहरण देते हैं। कलियुग का मानव वैसी आराधना करने में समर्थ नहीं है। अतः उसे दोष लगाते हुए कहा जाता है कि वैसी आराधना के बिना मोक्ष पूर्ण रूप से असंभव है। उसके बचे-खुचे अवशेष बहिर्मुखी कर्मकाण्ड के रूप में शेष बचे हैं।

  • सभी धर्माचार्य त्याग, तपस्या, दान, पुण्य आदि का उपदेश देते हैं। इस युग का मानव कहता है कि यह तो पलायनवादी भाव है। संसार से विमुख होने से ही अगर यह काल्पनिक स्थिति (मोक्ष) प्राप्त होती है, तो संसार में कितने लोग इसको प्राप्त कर सकेंगे? अतः मोक्ष एक काल्पनिक आकर्षण मात्र है, इसमें सच्चाई बिलकुल ही नहीं है। संसार के लोगों का ऐसा सोचना पूर्ण सत्य है। इस समय संसार में धर्म के नाम पर जो कुछ हो रहा है, उससे मोक्ष जैसी उच्चतम स्थिति की कल्पना तक नहीं की जा सकती। मोक्ष का अर्थ है, उस परमसत्ता के तद्रूप बन जाना। तद्रूप बनने के लिए साधक को जिस प्रक्रिया में से गुजरना पड़ता है, और इस यात्रा के समाप्त होने के पहले, जो-जो अद्वितीय स्वाद उसे चखने को मिलते हैं, मात्र उन्हीं से उस उच्चतम स्थिति का महत्त्व समझ में आ सकता है।

  • हमारे दर्शन के अनुसार 'ईश्वर' प्रत्यक्षानुभूति और साक्षात्कार का विषय है। असंख्य विद्वानों ने गीता पर टीकाएँ लिख-लिखकर अपनी विद्वता का परिचय दिया है। सभी धर्माचार्य गीता से पाप-पुण्य, स्वर्ग-नरक आदि का भय दिखाकर तथा त्याग-तपस्या से जीवन बिताने का उपदेश देते हैं। गीता एक पूर्ण ग्रंथ है। वह जीवन के क्षेत्र का सम्पूर्ण ज्ञान कराती है। अतः तोड़-मरोड़कर उससे हर उपदेश देना संभव है, परन्तु गीता का रहस्य कुछ और ही है।

  • अगर गीता में से 11 वें अध्याय को अलग करके भगवान् 36 अध्यायों का उपदेश दे देते तो भी अर्जुन के कुछ भी समझ में नहीं आता। विराट स्वरूप से जिस प्रकार पूर्ण सत्य की प्रत्यक्षानुभूति और साक्षात्कार करवाया गया, उसे देखकर अर्जुन को पूर्ण ज्ञान प्राप्त हो गया। उसके बाद अर्जुन के भाव बदल गये, पूछने का लहजा बदल गया। बाद में सभी प्रश्न बहुत ही करुण भाव से पूछे। अतः गीता का रहस्य जितना अर्जुन समझा था, उतना कलियुग का मानव कैसे समझ सकता है। सम्पूर्ण गीता अन्तर्मुखी होकर प्रत्यक्षानुभूति और साक्षात्कार करने का ग्रंथ है। गीता प्रवचन का विषय है ही नहीं। गीता का हर श्लोक स्वयं सिद्ध मंत्र है। अतः गीता रूपी मंदिर में जब प्रभु की मूर्ति स्थापित हो चुकी है, जिसके दर्शन करने से अर्जुन को जिस दिव्य ज्ञान की प्राप्ति हुई, गीता वही उपदेश देती है। पूर्ण ज्ञान प्राप्त होने के बाद अर्जुन ने जो कार्य किया, गीता वही कार्य करने का उपदेश देती है।

  • सम्पूर्ण ज्ञान एकाग्रचित होकर सुनने के बाद भगवान् ने पूछा क्या तेरा अज्ञान से उत्पन्न हुआ मोह नष्ट हुआ? तब अर्जुन बोला -

  • नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत ।
    स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव ।। (18:73)

    हे अच्युत, आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया है, मुझे स्मृति प्राप्त हुई है, मैं संशय रहित हुआ स्थित हूँ और आपकी आज्ञा का पालन करूँगा।

  • इस समय विश्व में पूर्णरूप से माया का साम्राज्य है। हमारा दर्शन तो ईश्वरवाद का जनक है। जब हमारे धर्माचार्य प्रत्यक्षानुभूति एवं साक्षात्कार के स्थान पर अतीत के गुणगान करके धर्म की इतिश्री कर रहे हैं, तब पैगम्बरवादी धर्मों को दोष देना व्यर्थ है।

  • माया को जीत पाना कितना कठिन है, इस संबंध में भगवान् श्रीकृष्ण ने गीता के 7वें अध्याय के 14वें श्लोक में कहा है -

  • दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया ।
    मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ।। (7:14)

    क्योंकि यह अलौकिक (अति अद्भुत ) त्रिगुणमयी मेरी योगमाया बड़ी दुस्तर है। जो पुरूष मेरे को ही निरन्तर भजते हैं, वे इस माया का उल्लंघन कर जाते हैं अर्थात् संसार से तर जाते हैं।

  • इस युग के धर्माचार्य लौकिक समस्याओं का समाधान करने में समर्थ नहीं हैं, अलौकिक समस्याओं के समाधान की कल्पना ही नहीं की जा सकती है। मोक्ष प्राप्ति के लिए छह चक्रों और तीनों ग्रन्थियों का भेदन करने के साथ-साथ आज्ञाचक्र भेदन जैसा सर्वाधिक कठिन कार्य करने के बाद सच्चिदानंद घन( सत्त. चित् आनंद) परब्रह्म के जगत् में प्रवेश करना पड़ता है। इस जगत् में माया नाम की कोई वस्तु नहीं है, परन्तु फिर भी प्रभु का दिव्य आनंद साधक को मस्त बना देता है। साधक उस आनंद के कारण सुध-बुध भूल जाता है। अगर गुरु न चेतावे तो वह आनंदमय कोश और चित्मय कोश का भेदन करके सत्मयकोश अर्थात् सहस्रार में पहुँचने का प्रयास ही नहीं कर सकता।

  • मेरे कई साधक काफी समय तक उसी स्थिति में स्थिर रहे। मेरे चेताने पर उन्हें सुध आई, वे बोले "गुरुजी", आनंद भी कैसा है कि संसार की सुध-बुध भुला देता है। आप न चेताते तो न मालूम कितने समय और इसी स्थिति में अटके रहते।" मोक्ष मात्र कुण्डलिनी के सहस्रार में पहुँचने पर ही होता है।

  • इस संबंध में गोस्वामी श्रीतुलसीदास जी ने भी कहा है -

  • धर्म तें विरति योग तें ज्ञाना ।
    ज्ञान मोक्ष-प्रद वेद बखाना।

  • मोक्ष के संबंध में भगवान् श्रीकृष्ण ने भी गीता में स्पष्ट शब्दों में कहा है कि -

  • आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन ।
    ज्ञान मोक्ष-प्रद वेद बखाना।

    हे अर्जुन ! ब्रह्मलोक से लेकर सब लोक पुनरावर्ती स्वभाव वाले हैं, परन्तु हे कुन्तीपुत्र, मेरे को प्राप्त होकर उसका पुनर्जन्म नहीं होता है।

  • मात्र योग से ही सहज समाधि और सहज समाधि से मोक्ष संभव है। योगी की स्थिति का वर्णन करते हुए भगवान ने कहा है-

  • तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः ।
    कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन ।। (6:46)

    क्योंकि योगी तपस्वियों से श्रेष्ठ है और शास्त्र के ज्ञानवालों से भी श्रेष्ठ माना गया है, तथा सकाम कर्म करने वालों से भी योगी श्रेष्ठ है, इससे हे अर्जुन तूं योगी हो।

इस समय योग संसार से प्रायः लुप्त हो गया है। योग की व्याख्या करते हुए महर्षि श्री अरविन्द कहते हैं -
योग का अर्थ है परमात्मा के साथ संयोग, विश्व के परे जो परमात्मा तत्त्व है, उसके साथ संयोग या विश्वात्मा के साथ संयोग या व्यष्टिगत जो आत्मा है, उसके साथ संयोग अथवा जैसा कि इस योग में होता है, तीनों के साथ, एक साथ संयोग अथवा इसका अर्थ है एक ऐसी चेतना को प्राप्त होना, जिसमें मनुष्य अपने क्षुद्र अहंकार, व्यष्टिगत मन बुद्धि, व्यष्टिगत प्राण और शरीर से बंधा नहीं रहता परन्तु परमात्मा के साथ या विश्वात्मचैतन्य के साथ एकत्व को प्राप्त होता है, जिससे वह अपने अन्तरात्मा के स्वरूप को जान लेता है, अपनी ही अन्तर सत्ता को तथा जीवन के वास्तविक सत्य को पहचान लेता है।

- महर्षि श्री अरविन्द

  • सिद्धयोगियों की गुरु-शिष्य परम्परा में जिस सिद्धयोग अर्थात् महायोग का वर्णन है, उसके आदिगुरु कैलाशवासी भगवान् श्री परशिव हैं जिन्हें सिद्धों की परिभाषा में 'श्रीकण्ठनाथ' कहा जाता है। कलियुग में इसका प्रसार-प्रचार योगीन्द्र श्री मत्स्येन्द्रनाथ जी ने किया। इन्हीं के शिष्य महायोगी श्री गोरक्षनाथ जी ने इस सिद्धयोग से संसार का जो कल्याण किया है, वह सर्वविदित है।

  • योग साधना के संबंध में गोरक्षशतक में कहा है -

  • द्विजसेवितशाखास्य श्रुतिकल्पतरोः फलम् ।
    शमनं भवतापस्य योगं भजत सत्तमाः ।। (गोरक्षशतक-6)

    "वेद कल्पतरू है। जिस तरह कल्पतरू की शाखाएँ पक्षियों के आश्रय स्थान है, ठीक इसी तरह द्विजों द्वारा वेद की शाखाओं का परिशीलन किया जाता है। वेदरूपी कल्पतरू का अमर-फल योग है। हे सत्पुरूषों! इसका सेवन करो। यह योग संसार के त्रिविध तापों (आधि-भौतिक, आधि-दैहिक व आधि-दैविक) का शमन (नाश) कर दता है।"

  • मनुष्य जीवन का रहस्य जन्म में नहीं, उसकी मृत्यु में छिपा है। जब तक मनुष्य मृत्यु से भयभीत रहेगा, मोक्ष का रहस्य समझ में आ ही नहीं सकता। माया ने इस मृत्यु रूपी मोक्षदाता ज्ञान का स्वरूप ऐसा डरावना और विकृत बना दिया है, कि मनुष्य मृत्यु का नाम सुनकर ही कांप उठता है। माया का प्रपंच देखिये, कि वह जीवात्मा को जीव भाव में इतना जकड़े रहती है कि उसे आत्मभाव की प्रत्यक्षानुभूति होने ही नहीं देती है। जब तक मृत्यु का रहस्य समझ में नहीं आता, मोक्ष एक कल्पना मात्र है।

  • पातंजलि योग दर्शन के विभूतिपाद के सूत्र संख्या 22 में स्पष्ट कहा है कि योगी को अपनी मृत्यु का पूर्ण ज्ञान हो जाता है कि वह कब और किस प्रकार तथा किन-किन कारणों से मरेगा?
    सोपक्रम निरुपक्रम च कर्म तत्संयमादपरान्त ज्ञानमरिष्टेभ्यो वा ॥22॥

    - पातंजलि योग दर्शन

    सूत्रार्थः उपक्रम सहित(तीव्र वेगवाले) उपक्रम रहित (मंद वेगवाले)दोनों प्रकार के कर्मों में संयम करने से मृत्यु का ज्ञान होता है अथवा अरिष्टों से भी मृत्युका ज्ञान होता है।

    इससे स्पष्ट है कि योगी को जीवन काल में ही मृत्यु से पूर्ण साक्षात्कार हो जाता है। अतः वह जीते जी जीवनमुक्त हो जाता है। इस संबंध में संत कबीर दास जी ने कहा है-

  • साधो भाई जीवत ही करो आशा ॥
    जीवत समुझे जीवत बूझे, जीवत मुक्ति निवासा ।
    जियत करम की फाँस न काटी, मुए मुक्ति की आशा ॥1॥

    तन छूटे जिव मिलन कहत है, सो सब झूठी आसा ।
    अबहुँ मिला सो तबहुँ मिलेगा, नहिं तो जमपुर वासा ॥2॥

    दूर दूर ढूँढ़े मन लोभी, मिटै न गर्भ तरासा ।
    साध संत की करै न बन्दगी, कटै करम की फाँसा ॥3॥

    सत्त गहै सतगुरु को चीन्है, सत्तनाम विश्वासा ।
    कबीर साधन हितकारी, हम साधन केदासा ॥4॥

    अतः मनुष्य जीवन काल में ही मृत्यु से साक्षात्कार कर लेने के बाद अर्थात् मृत्यु का रहस्य जान लेने के बाद, जब वह समय आता है तो, मनुष्य मृत्यु का स्वागत करके उसका वरण करता है, क्योंकि वह अपने जीवनकाल में ही अच्छी प्रकार समझ लेता है, कि यह अंतिम जीवन है। उस समय की बड़ी उत्सुकता के साथ प्रतीक्षा करता है।

  • इस संबंध में संत कबीर ने कहा है -

  • ऊँचा तरवर गगन फल, बिरला पंछी खाय ।
    इस फल को तो सो चखै, जो जीवत ही मरि जाय ॥

    मरते-मरते जग मुआ, औसर मुआ न कोय ।
    दास कबीरा यों मुआ, बहुरि न मरना होय ॥

    जीवन से मरना भला, जो मरि जानै कोय ।
    मरने पहिले जो मरै, (ता) अजर अरु अमर होय ॥

    जा मरने से जग डरै, मेरे मन आनन्द ।
    कब मरिहौं कब पाइहौं, पूरन परमानंद ॥

    (कबीर साखी-संग्रह)

  • इस संबंध में ईसाइयों का पवित्र धार्मिक ग्रंथ भी उसी भाषा में बोलता है, क्योंकि साधक पश्यन्ति वाणी में बोलता है। वह प्राणी मात्र की वाणी है। अतः बाइबिल के प्रकाशित वाक्य 2:11 में कहा है-"जिसके कान हों, वह सुन ले कि आत्मा कलीसियाओं से क्या कहता है। जो जय पाए, उसको दूसरी मृत्यु से हानि न पहुँचेगी।"

  • ईश्वर की प्रत्यक्षानुभूति और साक्षात्कार की क्रियात्मक विधि जिस प्रकार योगदर्शन में वर्णित है, उसी पथ से महर्षि श्रीअरविन्द ने उस दिव्य ज्ञान को प्राप्त किया था। इसका वर्णन करते हुए महर्षि लिखते हैं- "यदि ईश्वर है तो उसके अस्तित्व को अनुभव करने का, उसके साक्षात दर्शन प्राप्त करने का, कोई न कोई पथ होगा, वह पथ चाहे कितना ही दुर्गम क्यों न हो, उस पथ से जाने का मैंने दृढ़ संकल्प कर लिया है। हिन्दू धर्म का कहना है कि अपने शरीर के, अपने भीतर ही वह पथ है, उस पर चलने के नियम भी दिखा दिये हैं। उन सब का पालन करना, मैंने प्रारम्भ कर दिया है, एक मास के अन्दर अनुभव कर सका हूँ, कि हिन्दू धर्म की बात झूठी नहीं है, जिन-जिन चिह्नों की बात कही गई है, मैं उन सब की उपलब्धि कर रहा हूँ। "

  • मैं मानव मात्र को इस ज्ञान का अधिकारी मानता हूँ। इस समय तामसिक वृत्तियों ने संपूर्ण ज्ञान को छिन्न-भिन्न करके, मनुष्यों को छोटे-छोटे समूहों में कैद कर रखा है। सभी समूहों को आपस में लड़ा-लड़ाकर सबके बीच में अंधकार युक्त गहरी खाई बना रखी है। वे वृत्तियाँ कभी नहीं चाहेंगी कि अंधकार मिटे और प्रकाश हो। परन्तु यह प्रकृति का अटल नियम है कि कालचक्र अबाधगति से चलता आया है और चलता जाएगा। रात्रि के देवता कभी नहीं चाहते कि सूर्योदय हो, परन्तु सूर्य अपने नियम से उदय होता आ रहा है। जिस गुरुकृपा रूपी प्रसाद को, मैं बांटने निकला हूँ, उसे रोकने की कल्पना करना ही पागलपन होगा।

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