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मुझे परमसत्ता ने संसार के सामने पूर्ण रूप से प्रकट होने को मजबूर कर दिया है
17 जुन 1988
गुरुदेव श्री रामलालजी सियाग
एवीएसके, जोधपुर के संस्थापक और संरक्षक

मैं संकोचवश संसार के सामने प्रकट होने में कुछ झिझक रहा था। परन्तु उस परमसत्ता ने भौतिक और आध्यात्मिक दृष्टि से मुझे अपनी इच्छानुसार चलाने के लिए मजबूर कर दिया। सारे रास्ते बन्द करके एक ही रास्ता खुला रखा जिस पर मुझे चलाना चाहती है। मैंने प्रार्थना की, “हे प्रभु! संसार के लोग स्वांग रचे बिना मानने वाले नहीं हैं। मैं गृहस्थी जीवन से अभी निवृत भी नहीं हो सका हूँ। अतः संन्यास धारण करने की हालत में नहीं हूँ, और इस युग के लोग स्वांग के बिना मुझे स्वीकार नहीं करेंगे।’’ इस पर मुझे स्पष्ट दिखाया गया कि "देख! मैंने तेरा तन और मन सारा रंग दिया है, बनावटी स्वांग की तुझे जरूरत नहीं है। कर्ता तो मैं हूँ परन्तु माध्यम तो तुझे ही बनना पड़ेगा। मैंने तुझे प्रारम्भ से अन्त तक सब कछ सिखा और दिखा दिया है फिर झिझक कैसी? सारे माध्यम तुझे स्वयं निश्चित समय पर निरन्तर मिलते जायेंगे।’’ मुझे स्पष्ट आदेश है कि जो कुछ होना है, सभी पूर्व निश्चित है। इस प्रकार मुझे भौतिक संसार के सामने स्वयं प्रकट होना ही पड़ेगा।

  • मुझे स्पष्ट बताया गया कि आदिकाल से जितनी भी शक्तियाँ भौतिक संसार में अवतरित हुई हैं, सभी ने अपनी शक्ति का स्वयं ही परिचय दिया है। संसार का मानव इस स्थिति में कभी नहीं रहा है कि उसने अपने आप उस शक्ति का पता लगाया हो। इसके विपरीत संसार की तामसिक शक्ति कभी नहीं चाहेगी कि सात्त्विक शक्ति का उदय भौतिक जगत् में हो। अतः उनका विरोध करना जरूरी है। विरोध जितना प्रबल होगा, प्रकाश भी उतनी ही तेज गति से फैलेगा।

  • रात्रि के देवता कभी नहीं चाहते कि सूर्योदय हो, परन्तु आदिकाल से दिन और रात का क्रम चल रहा है। प्रकाश और अन्धेरा दोनों ही उस परमसत्ता की देन हैं। अन्धेरे के बिना प्रकाश का ज्ञान नहीं होता और प्रकाश के बिना अन्धेरे का। दोनों एक दूसरे के विरोधी दिखते हुए भी एक दूसरे के पूरक और सहयोगी हैं। संसार चक्र आदिकाल से अबाध गति से चलता आया है। यह किसी से प्रभावित भी नहीं होता। अतः अनादिकाल से सत्युग, त्रेता, द्वापर और कलियुग का क्रम चलता आया है और अनादिकाल तक चलता रहेगा।

  • हर युग का एक निश्चित समय होता है। इस क्रमिक परिवर्तन में कोई शक्ति रूकावट नहीं डाल सकती है । ये सब बातें मुझे बहुत अच्छी प्रकार बता दी गईं और समझा दी गईं हैं। मुझे जीवन के प्रारम्भ काल से ही ये बातें दिखाई और समझाई जाती रही हैं, परन्तु मैं आज तक इसे मानवीय कल्पना या मन का खेल समझता रहा। इनमें भी सच्चाई है, मुझे कभी विश्वास नहीं हुआ। परन्तु ये सारी बातें जब भौतिक रूप से सत्य होने लगीं तो मैं बहुत आश्चर्यचकित हुआ।

  • अनेक घटनाओं को भौतिक रूप से सत्यापित करके मुझे समझा दिया गया है कि जो कुछ बताया गया है, पूर्ण सत्य है और भौतिक रूप से घटेगा। भारत में ही कार्य करने की मेरी कल्पना पर स्वामी विवेकानन्द जी के पत्र पढ़ा कर पानी फेर दिया। स्वामी जी ने संस्था के लोगों को अमेरिका और पेरिस से जो पत्र लिखे, उनसे मेरा मोह भंग हो गया।

भारत में तो मुझे रोटी के एक टुकड़े के साथ डलिया भरी गालियाँ मिलती हैं। मैं कहीं भी जाऊँ प्रभु मेरे लिए काम करने वालों के, दल के दल भेज देते हैं। वे लोग भारतीय शिष्यों की तरह नहीं हैं। अपने गुरु के लिए प्राणों तक की बाजी लगाने को प्रस्तुत हैं। पाश्चात्य देशों में प्रभु क्या करना चाहते हैं, यह तुम हिन्दुओं को कुछ ही वर्षों में देखने को मिलेगा। तुम लोग प्राचीनकाल के यहूदियों जैसे हो और तुम्हारी स्थिति नांद में लेटे हुए कुत्ते की तरह है, जो न खुद खाए और न दूसरों को ही खाने देना चाहता है। तुम लोगों में किसी प्रकार की धार्मिक भावना नहीं है। रसोई ही तुम्हारा ईश्वर है तथा हँडिया बर्तन ही तुम्हारा शास्त्र। अपनी तरह ही असंख्य सन्तानोत्पादन में ही तुम्हारी शक्ति का परिचय मिलता है।

- स्वामी विवेकानन्द

    दूसरे पत्र में इसी प्रकार की भाषा का प्रयोग करते हुए स्वामीजी ने अन्त में कह डाला -

  • “क्या तुम यह कहना चाहते हो कि ऐसे जातिभेद, जर्जरित, कुसंस्कार युक्त, दया रहित, कपटी, नास्तिक, कायरों में से जो केवल शिक्षित हिन्दुओं में ही पाये जा सकते हैं, एक बनकर जीने के लिए मैं पैदा हुआ हूँ? मैं कायरता को घृणा की दृष्टि से देखता हूँ। कायर तथा राजनीतिक मूर्खतापूर्ण बकवासों के साथ, मैं अपना सम्बन्ध नहीं रखना चाहता। मुझे किसी प्रकार की राजनीति में विश्वास नहीं है। ईश्वर तथा सत्य ही जगत् में एक मात्र राजनीति है। बाकी सब कूड़ा-करकट है।”

  • स्वामी जी के उपर्युक्त पत्र दिखा कर मेरा मोह भंग कर दिया गया। मनुष्य शरीर ही सर्वोत्तम मंदिर है। मुझे प्रकाशप्रद शब्द के द्वारा सब कुछ मेरे अन्दर ही मिला। मुझे बताया गया कि यीशु भी शरीर को ही सर्वोत्तम मंदिर मानता था। यीशु ने कहा था :- "मैं मनुष्यों की प्रशंसा नहीं चाहता। मैं यह जानता हूँ कि तुममें परमेश्वर का प्रेम नहीं है। मैं अपने पिता का अधिकार लेकर आया, पर तुमने मुझे ग्रहण नहीं किया।दूसरे कोई अपने ही अधिकार से आए तो तुम उसे ग्रहण करोगे। एक ही परमेश्वर है। तुम उस परमेश्वर से प्रशंसा प्राप्त करने की कोशिश नहीं करते, पर एक दूसरे की प्रशंसा ग्रहण करते हो। तुम कैसे विश्वास कर सकते हो? यह न सोचो कि मैं पिता के सामने तुम पर दोष लगाऊँगा। तुम पर दोष लगाने वाला 'मूसा' है, जिस पर तुमने आशा रखी है। यदि तुमने मूसा पर विश्वास किया होता तो तुम मेरा भी विश्वास करते क्योंकि मूसा ने मेरे विषय में लिखा है। मूसा ने जो लिखा है, उस पर जब तुम विश्वास नहीं करते तो मेरे संदेश पर क्यों विश्वास करोगे?"

  • मरने से पहले यीशु ने जिस सहायक की बात कही है-- "पितासे विनती करूँगाऔर वह तुम्हें एक और सहायक देगा, कि वह सर्वदा तुम्हारे साथ रहे। अर्थात् सत्य का आत्मा, जिसे संसार ग्रहण नहीं कर सकता, क्योंकि वह न उसे देखता है और न उसे जानता है। तुम उसे जानते हो क्योंकि तुम्हारे साथ रहता है, वह तुममें होगा। मैं तुम्हें अनाथ नहीं छोडूंगा। मैं तुम्हारे पास आता हूँ। थोड़ी देर रह गई है कि फिर संसार मुझे न देखेगा, परन्तु तुम मुझे देखोगे, इसलिए कि मैं जीवित हूँ और तुम भी जीवित रहोगे।"

  • भगवान् श्रीकृष्ण ने गीता में जिस अमर जीवात्मा की बात कही है, यीशु का इशारा उसी तरफ है। परन्तु कालचक्र के प्रभाव से धीरे-धीरे सारा ज्ञान लुप्त हो गया है। पैगम्बर और अवतार में यही अन्तर होता है। पैगम्बर संदेश लेकर आता है, वह केवल संत पुरुषों को प्रभावित करता है तथा उनकी आस्था ईश्वर के प्रति दृढ़ करता है, जिससे कुछ काल के लिए शान्ति स्थापित होती है परन्तु राक्षस वृत्ति के लोग पैगम्बर की बात नहीं मानते। यीशु और मूसा के साथ यही हुआ। परन्तु अवतार का होना युग परिवर्तन का संकेत है। सत्युग, त्रेता, द्वापर इसके प्रमाण हैं। कलियुग की समाप्ति भी उस परमसत्ता के पृथ्वी पर अवतरण के बाद होगी।

  • "सतलोक" और "अलखलोक" की शक्तियाँ त्रेताऔर द्वापर में अवतरित हो चुकी हैं। कलियुग की समाप्ति के लिए अब "अगम लोक" की सर्वोच्च शक्ति को अवतार लेना होगा। महर्षि अरविन्द के अनुसार वह शक्ति 24 नवम्बर 1926 को इस पृथ्वी पर मानव रूप में अवतरित हो चुकी है। अपने क्रमिक विकास के साथ वह शक्ति 1994 के प्रारम्भ में संसार के सामने प्रकट हो जायेगी। इस प्रकार इस सदी के अन्त तक पूरे संसार के मानव उस शक्ति के आकर्षण में आ जायेंगे। इस प्रकार 21 वीं सदी के प्रारम्भ में भारत विश्व का धर्म गुरु बन जायेगा।

  • भगवान् श्रीकृष्ण ने गीता के 18वें अध्याय के 66वें श्लोक में जो उपदेश दिया है, संसार पूर्ण रूप से उसका पालन प्रारम्भ कर देगा। भगवान् ने कहा है -
    सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।
    अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ।। (18:66)

    - भगवान् श्रीकृष्ण

    (गीता)

    इस प्रकार कलियुग का अंत होकर सत्युग प्रारम्भ हो जायेगा।

    इस प्रकार श्री अरविन्द की यह भविष्यवाणी सत्य होगी :

  • "एशिया जगत-हृदय की शान्ति का रखवाला है, यूरोप की पैदा की हुई बीमारियों को ठीक करने वाला है। यूरोप ने भौतिक विज्ञान, नियंत्रित राजनीति, उद्योग, व्यापार आदि में बहुत प्रगति कर ली है। अब भारत का काम शुरू होता है। उसे इन सब चीजों को 'अध्यात्म शक्ति' के अधीन करके धरती पर स्वर्ग बसाना है।"

    उपर्युक्त भविष्यवाणी सत्य तभी होगी, जब भारत पश्चिम जगत् को अपनी आध्यात्मिक शक्ति के द्वारा पूर्णरूप से आकर्षित कर लेगा।

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