Image Description Icon
संत मत के अनुसार सृष्टि की उत्पत्ति का वर्णन
15 फरवरी 1988
गुरुदेव श्री रामलालजी सियाग
एवीएसके, जोधपुर के संस्थापक और संरक्षक

संत मत के अनुसार भी यह सारा संसार मात्र ईश्वर का ही विस्तार है। विभिन् स्वरूपों में मात्र उसी पूर्ण सत्ता की शक्ति कार्य कर रही है। हमारा भौतिक विज्ञान भी मानता है कि सूक्ष्म से स्थूल की उत्पत्ति होती है अतः साकार जगत की उत्पत्ति का कारण निराकार शक्ति ही है।

    मोटे तौर पर शब्द और प्रकाश ही इस संसार की उत्पत्ति का कारण हैं। शब्द और प्रकाश उस चेतन सत्ता का निराकार स्वरूप हैं। आदि में केवल शब्द ही था, प्रकाश उसकी चेतना का ही स्वरूप है। इस प्रकार शब्द और प्रकाश कोई भिन्न-भिन्न नहीं हो कर एक ही चेतन सत्ता की अभिव्यक्ति हैं, जिस प्रकार हीरे में से प्रकाश निकलता है अतः हीरा और प्रकाश जैसे दो भिन्न वस्तुएँ न होकर एक ही है।

    - समर्थ सद्‌गुरुदेव श्री रामलाल जी सियाग

  • जब इस निराकार सत्ता ने अपने विस्तार का विचार किया यानि संसार को रचने की सोची तो अपनी इच्छा शक्ति से अपने ही निराकार स्वरूप को सूक्ष्म में और फिर सूक्ष्म से स्थूल में परिवर्तित कर दिया। आज हम संसार को जिस रूप में देख रहे हैं यह उसी परम चेतन निराकर शक्ति का ही स्वरूप है।

  • इस प्रकार जब लोकों की रचना प्रारम्भ हुई तो सबसे पहले जो लोक रचा गया, संतों ने उसका नाम ‘अगम लोक’ रखा है। इस लोक में ईश्वर बालक रूप में प्रकट हुए। इस स्वरूप में से जो तेज प्रकाश निकलता है उसी से यह लोक प्रकाशित है। इस लोक में शब्द (ईश्वर) अपने सूक्ष्मतम स्वरूप प्रत्यक्षानुभूति में विराजमान है।

  • इसके बाद उस परमसत्ता ने नीचे उतर कर दूसरे लोक की रचना की जिसका नाम संतो ने ‘अलख लोक’ रखा है। इस लोक में शब्द का स्वरूप सूक्ष्म तरंग में परिवर्तित हो गया और वह परमसत्ता नील वर्ण में परिवर्तित हो गई। परन्तु प्रकाश का स्वरूप सफेद ही है। इस लोक का स्वरूप भी अति सूक्ष्म होने के कारण दिखाई नहीं देता, केवल दिव्य दृष्टी से दखा जा सकता है।

  • इसके बाद उस परमसत्ता ने और नीचे उतर कर जिस लोक की रचना की उसका नाम संतों ने ‘सत् लोक’ रखा है। इस लोक में भी उस परमसत्ता का स्वरूप नील वर्ण है, परन्तु प्रकाश अगम और अलख लोक जैसा ही सफेद है। शब्द का स्वरूप यहाँ भी तरंगों के रूप में अपने को व्यक्त करता है। इस लोक में ईश्वर संत सत्गुरु के रूप में प्रकट हुए हैं।

  • उपरोक्त तीनों देश भिन्न होते हुए भी इनकी रचना पूर्ण निर्मल चैतन्य से हुई है। यहाँ किसी प्रकार की भी माया का कोई प्रभाव नहीं है। इन देशों में पहुँचने के बाद जीव काल क्लेश, दुःख, दर्द और जन्म-मरण के चक्कर से मुक्त हो जाता है। इन तीनों लोकों में असंख्य द्वीप हैं, जो पूर्ण रूप से निर्मल चैतन्य से रचे हुए हैं। इनमें असंख्य जीव जो जन्म-मरण के चक्कर से छुटकारा पा चुके हैं, निवास करते हैं।

  • इसके बाद नीचे उतर कर उस परमसत्ता ने ब्रह्माण्ड की रचना की। यहाँ उस सत्ता ने अपने आप को दो रूपों में प्रकट कर लिया। शुद्ध चैतन्य और शुद्ध माया (शब्द+रोशनी) से ब्रह्माण्ड यानि ब्रह्मलोक की रचना हुई। इसके नीचे के स्थान को संत लोग सहस्रदल कँवल कहते हैं। यहाँ पर वह सत्ता राधा और कृष्ण (शब्द और रोशनी) के रूप में अलग-अलग प्रकट हुई। इन एक ही सत्ता के दो विभक्त स्वरूपों से सत्, रज, तम यानि ब्रह्मा, विष्णु और महेश पैदा हुए। इन तीनों शक्तियों से पहले एक शक्ति और पैदा हुई थी जिसका नाम इस युग में गायत्री शक्ति के नाम से जाना जाता है। यह शक्ति ज्ञान की देवी है।

  • इसके बाद, इन तीन- सत्, रज और तम (त्रिगुणमयी माया) द्वारा जिस नीचे के लोक की रचना हुई उसे पिण्ड का देश या मृत्यु लोक कहते हैं। इसमें छः चक्र होते हैं। इस रचना में देवता, मनुष्य और निम्न चारों प्रकार से पैदा होने वाले जीव शामिल हैं।

  • 1.

    जेरज - जो झिल्ली में लिपटे हुए पैदा होवें।

  • 2.

    अण्डज- जो अण्डे के अन्दर पैदा हो कर प्रकट होवें।

  • 3.

    स्वेदज - जो पानी और पसीने से पैदा हो कर प्रकट होवें।

  • 4.

    उठमज- जो जमीन में पृथ्वी और गर्मी से पैदा होवें। उसमें सभी प्रकार की वनस्पतियाँ सम्मिलित हैं।

  • इस प्रकार इन सभी जीवों को कर्मों के अनुसार चलाने के लिए पांच प्रकार की वृत्तियाँ पैदा हुईं।

  • 1.

    काम

  • 2.

    क्रोध

  • 3.

    लोभ

  • 4.

    मोह और

  • 5.

    अहंकार

  • इसके अलावा चार प्रकार के 'अंतःकरण' प्रकट हुए -

  • 1.

    मन

  • 2.

    चित्त

  • 3.

    बुद्धि

  • 4.

    अहंकार

  • इसके अलावा जीवों के पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ -

  • 1.

    आँख

  • 2.

    कान

  • 3.

    नाक

  • 4.

    जबान, रस का स्वाद लेने के लिए और

  • 5.

    त्वचा।

  • इसके अतिरिक्त पाँच कर्मेंन्द्रियाँ भी दी -

  • 1.

    हाथ

  • 2.

    पांव

  • 3.

    जबान, बोलने के लिए

  • 4.

    पेशाब की इन्द्री और

  • 5.

    पखाने की इन्द्री

  • क्योंकि ये सूक्ष्म और स्थूल लोक माया से आतप्रोत है अत: अनेक प्रकार के मायावी भोग माया ने प्रकट कर के मन और इन्द्रियों द्वारा उनको भोगने का लालच देकर जीव को अपने भँवर जाल में फँसा लिया। इस प्रकार जीव त्रिगुणमयी माया के चक्कर में फंस कर संसार के झूठे भोगों के प्रलोभन में आकर कष्ट भोग रहा है। दिखने में ये मायावी भोग अमृत के समान लगते हैं, परन्तु इनका परिणाम विष के समान होता है। इस प्रकार जीव इस भँवर जाल में फंस कर दुख भोग रहा है।

  • इस जाल से निकलने का रास्ता मात्र एक ही है। शब्द उस परमसत्ता से निकलने वाली सूक्ष्म धार (तरंग) है। केवल उसी धार के सहारे ही उस परमसत्ता तक पहुँचा जा सकता है और कोई उपाय नहीं है। चेतन शब्द से हीरे की तरह प्रकाश निकलता है जो अन्धकार को भगा देता है और उस अगम लोक से आने वाले प्रकाश के सहारे उसके उद्गम स्थान तक पहुँचा जा सकता है। इस के अलावा किसी प्रकार की आराधना से उस परमसत्ता से जुड़ना असम्भव है।

  • माया के क्षेत्र की विभिन्न प्रकार की शक्तियाँ छठे चक्र तक के सभी नाशवान भोग देने में समर्थ हैं। जीव इन भोगों के चक्कर में फंस कर भूल-भुलैया में फंस कर रह जाता है और पूरा जीवन इनके चक्कर में व्यर्थ ही गवां देता है। फिर अन्त समय में भारी पश्चाताप करता है, परन्तु उस समय तक नाव पानी से इतनी भर चुकी होती है कि उसे डूबना ही पड़ता है, बचने का कोई मौका नहीं रहता। इस सभी चक्करों से बचने का रास्ता हमारे सभी संतों ने संत सत्गुरु की शरण लेना ही बताया है।

  • सभी ऋर्षि कह गये हैं जो कुछ ब्रह्माण्ड में है वही पिण्ड में है। सभी ने एक स्वर में कहा है ईश्वर घट-घट का वासी है। फिर इस युग के लोग उसे बाहर कैसे पा सकते हैं? अन्दर का रास्ता वही बता सकता है जो उस पर चलकर उस परमसत्ता का साक्षात्कार कर चुका है, जो उसकी प्रत्यक्षानुभूति कर चुका है। उस परमसत्ता से जुड़ा हुआ चेतन व्यक्ति ही असली भेद उस अगम के रास्ते का जानता है।

ईश्वर करोड़ों सूर्यों से भी तेज शक्ति का पुंज है। गुरु उस तार का नाम है जो उस पुंज से जुड़ा हुआ है, अगर आपका सम्बन्ध उस तार से हो जाता है तो आपके अन्दर तत्काल प्रकाश प्रकट हो जाएगा। उस चेतन गुरु का दिया हुआ शब्द तत्काल आपके अन्दर प्रकाश पैदा कर देगा। इस प्रकार आपके अन्दर जो शक्ति माया में लिपटी हुई, अचेतन अवस्था में पड़ी हुई है, तत्काल चेतन हो कर माया रूपी अन्धकार को क्षण भर में भगा देगी। इस प्रकार आई हुई आत्म चेतना आपको हर प्रकार की विघ्न व बाधाओं से बचाती हुई निर्भय रूप से उस पूर्ण सत्ता से मिला देगी। इस प्रकार जीव जन्म-मरण के चक्करों से बच सकता है।

- समर्थ सद्‌गुरुदेव श्री रामलाल जी सियाग

    इस युग में चालाक लोगों ने हमारे शास्त्रों में गुरु की महिमा को पढ़ कर उसका दुरुपयोग प्रारम्भ कर दिया है। इस प्रकार आज संसार में गुरुओं की संख्या शिष्यों से अधिक हो गई है। हमारे सभी शास्त्रों में गुरु की महिमा में बहुत कुछ कहा गया है। संत कबीर ने कहा है -
    कबिरा धारा अगम की सद्गुरु देई लखाय ।
    उलट ताहि पढ़िये सदा स्वामी संग लगाय ।।

    (राधाकृष्ण)


    गुरु का पद गोविन्द से भी ऊपर बताया गया है -
    गुरु गोविन्द दोनों खड़े किसके लागूँ पाँव ।
    बलिहारी गुरु देव की गोविन्द दियो मिलाय ।।

    गुरु की महिमा करते हुए ‘सहजो बाई’ ने भी कहा है -
    ज्यों तिरिया पीहर बसे, सूरत रहे पिउ (पति) मांहि ।
    ऐसे जन जग में रहें, गुरु को भूले नांहि ।।
    <
    अगर मुझे गुरु और गोविन्द में से एक को चुनने के लिए कहा जाय तो मैं गोविन्द को छोड़ कर गुरु को चुनना पसन्द करूँगी। अगर मैं गोविन्द को चुनती हूँ तो अगर दैव योग से गोविन्द से बिछुड़ गई तो फिर मिलना असम्भव होगा। परन्तु अगर गुरु कृपा रही तो हजार बार बिछुड़ ने पर भी गोविन्द मुझसे अलग नहीं रह सकते।

    - मीरा बाई

  • इस प्रकार संत मत को मानने वाले सभी लोगों ने गुरुपद की महिमा गाई है। ऐसे परम दयालु गुरु के मिलने पर जीव का कल्याण होने में कोई देर नहीं लगती। अध्यात्म जगत में समय की दूरी बिलकुल नहीं होती। जिस प्रकार बिजली का बटन दबाते ही प्रकाश हो जाता है, ठीक उसी प्रकार सच्चा गुरु आपके अन्दर प्रकाश पैदा कर सकता है क्योंकि उसका सम्बन्ध उस परम ज्योति पुंज से होता है। अगर तार टूटा-फूटा या नकली है तो अनेकों जन्मों में भी प्रकाश होना असम्भव है अतः अगर व्यक्ति चेतन है तो प्रथम मिलन के प्रथम क्षण में ही आपको इसकी प्रत्यक्षानुभूति हो जाएगी अन्यथा चाहे कितना ही समय बर्बाद करो कुछ नहीं होगा।

शेयर करेंः