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सारा संसार उस एक ही परमसत्ता का विस्तार है।
11 अप्रेल 1988
गुरुदेव श्री रामलालजी सियाग
एवीएसके, जोधपुर के संस्थापक और संरक्षक

संसार एक ही परमसत्ता का विस्तार है, इस सम्बन्ध में गीता के 13वें अध्याय में भगवान ने कहा है-

    इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते ।
    एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः ।।13:2।।

    भगवान श्री कृष्ण

    हे अर्जुन ! यह शरीर क्षेत्र है, ऐसे कहा जाता है। इसको जो जानता है, उसको क्षेत्रज्ञ, ऐसा उनके तत्त्व को जानने वाले ज्ञानी जन कहते हैं।

    क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत ।
    क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम ।।13:3।।

    भगवान श्री कृष्ण

    और हे अर्जुन! सब क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ मेरे को ही जान। क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ को जो तत्त्व से जानना है, वह ज्ञान है, ऐसा मेरा मत है।

    अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम् ।
    भूतभर्तृ च तज्ज्ञेयं ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च ।।13:17।।

    भगवान श्री कृष्ण

    और (वह) विभाग रहित एक रूप से आकाश के सदृश परिपूर्ण हुआ भी चराचर संपूर्ण भूतों में पृथक्-पृथक् के सदृश स्थित, वह जानने योग्य परमात्मा, विष्णु रूप से भूतों को धारण पोषण करने वाला और रुद्र रूप से संहार करने वाला तथा ब्रह्मा रूप से सबको उत्पन्न करने वाला है।

    ज्योतिषामपि तज्ज्योतिस्तमसः परमुच्यते ।
    ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं हृदि सर्वस्य विष्ठितम् ।।13:18।।

    भगवान श्री कृष्ण

    वह बह्मज्योतियों का भी ज्योति, माया से अति परे कहा जाता है। (वह परमात्मा) बोधस्वरूप (और)जानने योग्य है, तत्वज्ञान से प्राप्त होने वाला, सब के हृदय में स्थित है।

    उपद्रष्टाऽनुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः ।
    परमात्मेति चाप्युक्तो देहेऽस्मिन्पुरुषः परः ।।13:23।।

    भगवान श्री कृष्ण

    पुरुष इस देह में स्थित हुआ भी पर (माया अतीत ) है, साक्षी होने से उपद्रष्टा और यथार्थसम्मति देने वाला होने से अनुमन्ता(एवं) सब को धारण करने वाला होने से भर्ता, जीव रूप से भोक्ता, ब्रह्मादि कों का भी स्वामी होने से महेश्वर और शुद्ध सच्चिदानन्दघन होने से परमात्मा, ऐसा कहा गया है।

    य एवं वेत्ति पुरुषं प्रकृतिं च गुणैःसह ।
    सर्वथा वर्तमानोऽपि न स भूयोऽभिजायते ।।13:24।।

    भगवान श्री कृष्ण

    इस प्रकार पुरुष को और गुणों के सहित प्रकृति को जो मनुष्य तत्त्व से जानता है, वह सब प्रकार से बर्तता हुआ भी फिर नहीं जन्मता है।

  • हिन्दू धर्म का तो मूल मंत्र "मैं" आत्मा हूँ, यह विश्वास होना और तद्रूप बन जाना है, परन्तु इस समय माया का इतना घोर प्रभाव हो चला है कि चारों तरफ घोर अंधेरा है। संसार में सात्त्विक प्रकाश का नितान्त अभाव हो चला है। अध्यात्म की चर्चा करते ही इस युग का मानव डरता है। क्योंकि प्रत्यक्षानुभूति और साक्षात्कार की बात धर्म से लोप हो चुकी है, इस समय केवल वाद-विवाद, शब्दजाल और तर्क शास्त्र के सहारे अध्यात्म की शिक्षा दी जाती है। वाद-विवाद झगड़े की जड़ है, इसीलिए लोगों ने झगड़े के भय से धार्मिक चर्चा भी करनी बन्द कर दी है। यह स्थिति धर्म के घोर पतन का संकेत करती है। संसार के सभी धर्मों की कमोवेश एक ही स्थिति है। यह स्थिति अधिक समय तक नहीं रह सकती है। क्योंकि पतन की दृष्टि से धर्म चरम सीमा लांघ चुका है परिवर्तन अवश्म्भावी है। उत्थान और पतन का यह क्रम अनादिकाल से चला आ रहा है। युग परिवर्तन उस परमसत्ता का विधान है। यह कोई नई बात नहीं हो रही है। रात और दिन का क्रम जिस प्रकार निरन्तर चल रहा है, युग परिवर्तन भी कालचक्र के अधीन निरन्तर होता आया है।

  • गीता के आठवें अध्याय में भगवान ने कहा है -

  • सहस्रयुगपर्यन्तमहर्यद्ब्रह्मणो विदुः ।
    रात्रिं युगसहस्रान्तां तेऽहोरात्रविदो जनाः ।।8:17।।

    भगवान श्री कृष्ण

    (हे अर्जुन) ब्रह्मा का जो एक दिन है (उसको) हजार चौकड़ी युग तक अवधि वाला (और) रात्रि को (भी) हजार चौकड़ी युग तक अवधि वाली जो पुरुष तत्त्व को जानते हैं, वे योगीजन काल के तत्त्व को जानने वाले हैं।

मेरी आज की स्थिति के बारे में, जब मैं शान्त चित्त से सोचता हूँ तो एक ही नतीजे पर पहुँचता हूँ कि मेरे माध्यम से जो कुछ भी हो रहा है, वह उस परमसत्ता की शक्ति का ही चमत्कार है, जो कि मेरे गुरुदेव के आशीर्वाद के कारण ही मेरे माध्यम से प्रकट हो रही है। मुझे इस बारे में कोई भ्रम नहीं है। जो कुछ हो रहा है, मैं तो मात्र द्रष्टा भाव से देख रहा हूँ। मैं स्पष्ट महसूस कर रहा हूँ, कर्ता तो कोई और ही है। मुझे जैसे नचाया जा रहा है, नाच रहा हूँ।

- समर्थ सद्‌गुरुदेव श्री रामलाल जी सियाग

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