Image Description Icon
मानव शरीर स्थित जीवात्मा को कष्ट देना पाप है।
19 अप्रेल 1988
गुरुदेव श्री रामलालजी सियाग
एवीएसके, जोधपुर के संस्थापक और संरक्षक

इस समय जितनी भी आराधना की विधियाँ प्रचलित हैं प्रायः सभी में शरीर को कष्ट देने की प्रक्रिया सम्मिलित है। भयंकर गर्मी में और भयंकर सर्दी में शरीर को कष्ट देना, इसके अलावा अनेकों ऐसी आराधनाएँ प्रचलित हैं जिनके द्वारा जीवात्मा को भारी कष्ट दिया जाता है। ये सभी आराधनाएँ न हो कर केवल प्रदर्शन हैं, जिनके द्वारा अधिक से अधिक लोगों का ध्यान आकृष्ट करके आर्थिक लाभ लिया जा सके। भगवान कृष्ण ने गीता के छठे अध्याय में कहा है -

    नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः ।
    न चातिस्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन ।।6:16।।

    भगवान श्री कृष्ण

    हे अर्जुन, यह योग न तो बहुत खाने वाले का सिद्ध होता है, और न, बिल्कुल न खाने वालों का तथा न अति शयन करने के स्वभाव वाले का और न अत्यन्त जागने वाले का ही।

    युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु ।
    युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा ।।6:17।।

    भगवान श्री कृष्ण

    दुःखों का नाश करने वाला योग (तो) यथायोग्य आहार और विहार करने वाले का (तथा) कर्मों में यथायोग्य चेष्टा करने वाले का (और)यथायोग शयन करने तथा जागने वाले का (ही) (सिद्ध) होता है।

  • भगवान् ने स्पष्ट कहा है कि योग सब तरह के दुःखों का नाश करने वाला है, फिर शरीर को कष्ट देकर उस परमसत्ता की प्रत्यक्षानुभूति कैसे सम्भव है? परन्तु सभी अनभिग्य लोगों ने संसार के सभी प्राणियों को भ्रमित तो कर ही रखा है; स्वयं भी भ्रमित हो रहे हैं। ऐसा लगता है कुएँ में ही भांग गिर चुकी है। सर्वत्र एक ही लहर चल रही है।

  • इस युग में आध्यात्म जगत में जितना अन्धकार व्याप्त है पहले कभी देखने में नहीं आया। किसी न किसी प्रकार से हर धर्म के धर्मगुरुओं ने इस पथ को अर्थोपार्जन का साधन बना रखा है। गरीब और सीधे-साधे लोगों को धर्म और ईश्वर के नाम पर ठग रहे हैं। हर जगह इसी प्रकार की लूट मची हुई है। सभी उपदेशक भगवान् के नाम जप की बात करते हैं। भगवान् श्री कृष्ण ने भी गीता में स्पष्ट कहा है कि सब प्रकार के यज्ञों में ‘मैं’जपयज्ञ हूँ। फिर इस युग में इस जपयज्ञ से लोगों में चेतना क्यों नहीं प्रकट होती है?

  • मैं देखता हूँ जब तक कथा-प्रवचन आदि का कार्यक्रम चलता है, लोगों में कुछ उत्साह देखने में आता है, पर ज्यों ही कार्यक्रम समाप्त हुआ, लोग सब कुछ भूल जाते हैं। उन पर कुछ भी असर दिखाई नहीं देता है। ईश्वर, प्रकृति और जीवात्मा एक सच्चाई है। प्रकृति ने जीवात्मा को इस कदर आच्छादित कर रखा है कि उसे परमात्मा की झलक ही नहीं मिलने देती। परन्तु अगर जीव दैवयोग से सच्चे संत सत्गुरु के सम्पर्क में आ जाता है तो माया का फैलाया हुआ अन्धकार उसके अन्दर से क्षणभर में भाग जाता है और उसका स्थान सात्विक प्रकाश ले लेता है। इस प्रकार एक बार चेतन हुआ व्यक्ति निरन्तर चेतना के जगत में आगे बढ़ता हुआ निश्चित रूप से जन्म-मरण के चक्कर से छुटकारा पा जाता है। गुरु वह पारस होता है जिसके सम्पर्क में आने पर हर जीव सात्विक प्रकाश से जगमगा उठता है।

  • आज संसार में असंख्य धर्म गुरुओं के रहते हुए भी घोर अन्धकार छाया हुआ है। सारे विश्व का अन्धकार भगाने के लिए एक ही संत सत्गुरु काफी है। एक ही जलता दीपक असंख्य दीप प्रज्वलित करके संसार का अन्धकार भगाने में सक्ष्म होता है। पहला दीपक ही जलना कठिन है। जिस प्रकार एक जलते दीपक से जले हुए दीपक दूसरे दीपकों को जलाने की शक्ति रखते हैं, ठीक उसी प्रकार संत सत्गुरु से चेतन हुए जीवात्मा असंख्य जीवात्मा को चेतन करने की क्षमता रखते हैं । जिस प्रकार जनरेटर से जुड़े हुए तार से बिजली के असंख्य बल्ब एक साथ जल सकते हैं, ठीक उसी प्रकार एक ही संत सत्गुरु पूरे विश्व का अन्धकार भगाने में सक्ष्म है। मैं इस सिद्धान्त को भौतिक जगत में सत्यापित होते हुए स्वयं देख रहा हूँ। श्री अरविन्द की यह बात पूर्ण रूप से सत्य है कि- ‘‘यहाँ मैं इस सिद्धि के लिए जो यत्न कर रहा हूँ, वह केवल इसलिए कि पार्थिव चेतना में इस काम का होना आवश्यक है, और अगर यह पहले मेरे अन्दर न हुआ तो औरों में भी न हो सकेगा।’’ गुरु अधिमानसिक देव का (चेतन) स्वरूप होता है।

शेयर करेंः