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हिन्दू धर्म क्या है?
19 फरवरी 1988
गुरुदेव श्री रामलालजी सियाग
एवीएसके, जोधपुर के संस्थापक और संरक्षक

वास्तव में आज संसार के लोग जिनको हिन्दू कह कर सम्बोधित करते हैं, वे लोग वास्तव में वेदान्ति हैं। स्वामी विवेकानन्द जी के अनुसार हिन्दू कोई धर्म नहीं है; यह सिन्धु का मात्र अपभ्रंश है। वास्तव में वेदों को मानने वाले वेदान्ति लोगों को ही आज संसार में ‘हिन्दु’ कह कर सम्बोधित करते हैं। वेदों की व्यवस्था के अनुसार जो लोग चलते हैं वही ‘वेदान्ति’ हैं। वेदान्त धर्म ही सनातन आदि धर्म है। वेदों की भाषा संस्कृत है। यह भाषा आज की संस्कृत भाषा की व्याकरण से नहीं बन्धती है, ऐसा सभी विद्वानों का मत है। यही कारण है वेदों को समझ न पाने के कारण अर्थ का अनर्थ हो रहा है।

  • संस्कृत भाषा देव भाषा है या वह मूल भाषा है जिसे वर्तमान मन्वन्तर के आरम्भ में उत्तर मेरु के निवासी बोलते थे, पर अपने विशुद्ध रूप में यह द्वापर या कलियुग की संस्कृत नहीं है; यह सतयुग की भाषा है जो वाक् और अर्थ के सच्चे और पूर्व सम्बन्ध पर प्रतिष्ठित है। इसके प्रत्येक स्वर एवं व्यंजन में एक विशेष एवं अविच्छेद्य शक्ति है जो वस्तुओं की निज प्रकृति के कारण ही अपना अस्तित्व रखती है न कि विकास या मानवीय चुनाव के कारण। ये मूलभूत ध्वनियाँ हैं जो तान्त्रिक बीज मंत्रों का आधार हैं और स्वयं मंत्र का प्रभाव निर्मित करती हैं। वेदों की भाषा के सम्बन्ध में महऋषि अरविन्द जैसे संत की यह मान्यता है। अतः वेदों को आधार मानकर जो कर्म-काण्ड और धार्मिक विधियाँ इस युग में प्रचलित हैं, वे सभी आधारहीन और सच्चाई से बहुत दूर हैं। अतः अगर हमें वेदों की कुछ सच्ची झलक देखनी हो तो हमें पुराणों का अध्ययन करने से अधिक लाभ होने की सम्भावना है। पुराणों की रचना व्यास जी ने की थी। पुराणों की रचना क्योंकि सत्युग में नहीं हुई अतः पूर्ण सच्चाई का ज्ञान तो सम्भव नहीं है, परन्तु फिर भी पुराण, और ग्रन्थों से वेदों के अधिक निकट है।

  • सत्युग में प्रत्येक मानव का उस परमसत्ता से सीधा सम्पर्क था। युगु-युग में यह अन्तर बढ़ता ही गया। दूरी के हिसाब से आज का मानव सभी सीमाओं का अतिक्रमण करते हुए चरम सीमा तक पहुँच रहा है। हमारा विज्ञान भी कहता है कि ऐसी स्थिति में पहुँचने पर हर वस्तु का स्वरूप परिवर्तित हो जाता है। इस सम्बन्ध में विष्णु पुराण हमें स्पष्ट बताता है। विष्णु पुराण हमें बताता है कि सत्युग में विष्णु यज्ञ के रूप में अवतरित होते हैं, त्रेता में विजेता और राजा तथा द्वापर में व्यास, संकलनकार, संहिताकार और शास्त्रकार के रूप में। इसका अर्थ यह नहीं कि वे याज्ञिक कर्म के रूप में अवतरित होते हैं।

सत्युग मानव-पूर्णता का युग है जिसमें सामंजस्यपूर्ण व्यवस्था स्थापित होती है, पूर्ण या चतुष्पाद धर्म का युग है जिसका पालन योग की पूर्ण और सार्वभौम उपलब्धि पर या परमेश्वर के साथ सीधे सम्बन्ध पर निर्भर है। चतुष्पाद धर्म है- ब्राह्मणत्व, क्षत्रियत्व, वैश्वत्व, और शुद्रत्व - इन चारों धर्मों का पूर्ण सामंजस्य। इसी कारण सत्युग में पृथक वर्ण अस्तित्व नहीं रखते।
  • त्रेता में ब्राह्मणत्व का ह्रास होने लगता है, पर वह क्षत्रियत्व की सहायता करने के लिए एक गौण शक्ति के रूप में बना ही रहता है। उस समय क्षत्रिययत्व ही मानवजाति पर शासन करता है। मनुष्य जाति तब पहले की तरह अन्तर्निष्ठ ब्रह्मज्ञान से सहजतया धारित वीर्य या तपस् के द्वारा रक्षित नहीं होती, बल्कि वह एक ऐसे वीर्य या तपस् द्वारा रक्षित होती है जो कुछ कठिनाई से ही ब्रह्मज्ञान को पोषित करता है और उसे ध्वस्त होने से बचाता है। तब विष्णु क्षत्रिय अर्थात् वीर्य और तपस् के विग्रहधारी केन्द्र के रूप में अवतीर्ण होते हैं।

  • द्वापर में ब्राह्मणत्व और अधिक ह्रास को प्राप्त हो कर कोरे ज्ञान या बौद्धिकता में परिणत हो जाता है। क्षत्रियत्व वैश्यत्व को आश्रय देने वाली एक अधीनस्थ शक्ति बन जाता है और वैश्यत्व को अपने प्रभुत्व का अवसर प्राप्त होता है। वैश्य के मुख्य गुण हैं- कौशलम्, व्यवस्था और प्रणाली, और इसीलिए द्वापर संहिता-निर्माण, कर्मकाण्ड और शास्त्र का युग है, जो ह्रासोन्मुख आन्तरिक आध्यात्मिकता को बनाए रखने के लिए बाह्य उपकरण हैं। दानम्, अतिथि-सेवा, तर्पण, यज्ञ और दक्षिणा अन्य धर्मों को निगलने लगते हैं- यह यज्ञिय युग है, यज्ञ का युग। भोग और इसलिए वेद का उपयोग इहलोक और परलोक में भोग सम्पादन के लिए किया जाता है। इसमें विष्णु बुद्धि और अभ्यास की अर्थात् बौद्धिक ज्ञान पर आधारित नित्य अनुष्ठान की सहायता से धर्म के ज्ञान और आचरण को सुरक्षित रखने के लिए स्मृतिकार, कर्मकाण्डी और शास्त्रकार के रूप में अवतरित होते हैं।

  • कलियुग में शुद्र के धर्म प्रेम और सेवा के सिवाय सब कुछ छिन्न-भिन्न हो जाता है। इस शुद्र-धर्म द्वारा ही मानवता का धारण एवं रक्षण और समय-समय पर पवित्रिकरण भी होता है क्योंकि ज्ञान छिन्न-भिन्न हो जाता है, और उसका स्थान सांसारिक व्यावहारिक बुद्धि ले लेती है, वीर्य छिन्न-भिन्न हो जाता है और उसका स्थान ले लेते हैं ऐसे आलस्य पूर्ण याँत्रिक साधन जिनसे सब कार्य निर्जीव ढंग से कम से कम कष्ट के साथ कराये जा सकें, दान, यज्ञ और शास्त्र छिन्न-भिन्न हो जाते हैं और उनके स्थान पर नपी- तुली उदारता, कोरा कर्मकाण्ड और तामसिक सामाजिक रूढ़ियाँ एवं शिष्टाचार प्रतिष्ठित हो जाते हैं। इन निर्जीव रूपों को छिन्न-भिन्न करने के लिए अवतार प्रेम को उतार लाते हैं जिससे जगत् को नवजीवन प्रदान किया जा सके और एक नई व्यवस्था एवं नया सत्यगु जन्म ले सके, जबकि परमेश्वर पुनः यज्ञ के रूप में अर्थात ज्ञान, बल सुखोपभोग और प्रेम रूपी चतुष्पाद् धम्र की पूर्ण अभिव्यक्ति से सम्पन्न परम-विष्णु के रूप में अवतीर्ण होंगे।

  • विष्णु पुराण का उपरोक्त वर्णन स्पष्ट बताता है कि कलियुग में पूर्ण निर्जीव सत्ता का विस्तार है। तामसिकता अपनी चरम सीमा को छू रही है। अतः यही समय उस परमसत्ता के अवतरण का उपयुक्त समय है। काल के गुण धर्म के कारण संसार के सभी धर्म केवल कोरे कर्मकाण्ड, प्रदर्शन, शब्दजाल और तर्क शास्त्र के सहारे आध्यात्म की आड़ में अन्याय, अत्याचार और शोषण करने में लगे हुए हैं।

  • धर्म मात्र प्रत्यक्षानुभूति और साक्षात्कार का विषय है। विष्णु पुराण में पुनः सत्युग की जो बात कह कर उसके गुण धर्म बताये गये हैं वे सभी महर्षि अरविन्द की इस भविष्यवाणी से पूर्णरूप से मेल खाते हैं-
    24 नवम्बर 1926 को श्री कृष्ण का पृथ्वी पर अवतरण हुआ था। श्री कृष्ण अतिमानसिक प्रकाश नहीं हैं। श्री कृष्ण के अवतरण का अर्थ है अधिमानसिक देव का अवतरण जो जगत् को अतिमानस और आनन्द के लिए तैयार करता है। श्री कृष्ण आनन्दमय हैं। वे अतिमानस को अपने आनन्द की ओर उद्बुद्ध करके विकास का समर्थन और संचालन करते हैं।
  • इसी प्रकार की भविष्यवाणियाँ संसार के कई संत कर चुके हैं। सभी ने उस परमसत्ता के अवतरण की बात भारत भूमि पर की है। ऐसा लगता है उस परमसत्ता का सात्विक प्रकाश संसार के सभी संतों को यदाकदा दिख जाता है। मेरी प्रत्यक्षानुभूति के अनुसार भी वह परम आध्यात्मिक सत्ता इस युग के भौतिक विज्ञान के वैज्ञानिकों को प्रमाण सहित ऐसे चमत्कार दिखयेगी कि सभी उसके सामने नत्मस्तक होकर उस परमसत्ता के अधीन होकर कार्य करने लगेंगे। इस प्रकार हमारे वेदों में वर्णित बात सत्य होगी और कलियुग का अन्त होकर पुनः सत्युग की स्थापना होगी। संसार की सारी घटनाओं पर ध्यान दें तो ऐसे लगता है वह समय अब अधिक दूर नहीं।

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