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आध्यात्मिक-ज्ञान प्राप्ति का समय भी युवावस्था
गुरुदेव श्री रामलालजी सियाग
एवीएसके, जोधपुर के संस्थापक और संरक्षक

मनुष्य जीवन में क्रमिक विकास के अनुसार ही कार्य करने के नियम निर्धारित किये गये हैं। शारीरिक और बौद्धिक विकास को ध्यान में रखते हुए सम्पूर्ण जीवन को चार भागों में बाँटा है बह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास। प्रथम 25 वर्षों में विद्याअध्ययन अर्थात् भौतिक और अध्यात्म ज्ञान की प्राप्ति, ब्रह्मचर्य धर्म का पालन करते हुए करने का विधान निश्चित किया हुआ है।

  • विद्यार्थी जीवन के आखिरी 2-3 वर्षों में वैदिक दर्शन और योगदर्शन की शिक्षा सम्पूर्ण ढंग से दी जाती थी, ताकि वह अगले तीनों आश्रमों में पूर्णरूप से अर्थात् शरीर, मन और बुद्धि से स्वस्थ रहते हुए सार्थक जीवन जी सकें। दूसरे 25 वर्ष गृहस्थधर्म का पालन करने के लिए निश्चित किये हुए थे। तीसरे 25 वर्ष वानप्रस्थ धर्म के लिए निश्चित थे। इसमें मनुष्य, गृहस्थ में रहते हुए भी ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करता था और अपने सम्पूर्ण अर्जित ज्ञान की शिक्षा अपनी संतानों को देकर उनका पथ प्रदर्शन करता था। इस प्रकार उसकी संताने भी जो ब्रह्मचर्य और गृहस्थ आश्रम में होती थी, सार्थक जीवन जीने के लिए सम्पूर्ण व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त कर लेती थी। इसके बाद वह घर का सम्पूर्ण त्याग करके पूर्ण रूप से संन्यासी का जीवन बिताने जंगलों में चला जाता था। उपर्युक्त व्यवस्था त्रेता और द्वापर में रही होगी, जब मनुष्य की क्षमता और संसार का वातावरण पूर्णरूप से ठीक था।

  • उन युगों में तामसिक वृतियों की प्रधानता नहीं थी, अतः मनुष्य का चरित्र बहुत उज्ज्वल था। परन्तु जब से कलियुग का प्रहर प्रारंभ हुआ है, तामसिक वृतियों ने सभी धर्मों को छिन्न-भिन्न कर दिया है। मनुष्य पूर्णरूप से स्वेच्छाचारी हो गया है। जीवन की सभी मर्यादायें पूर्ण रूप से छिन्न-भिन्न हो चुकी हैं। हम जिस वैदिक दर्शन और योगदर्शन की बात करते हैं, वह व्यावहारिक जीवन से लोप प्रायः हो चुका है।

  • आज हमारे उपर्युक्त दोनों दर्शन मात्र दार्शनिक ग्रंथों में कैद पड़े हैं। जब तक इस ज्ञान को कैद से मुक्त करके, मनुष्य शरीर रूपी प्रयोगशाला में प्रमाणित नहीं किया जायेगा, सार्थक जीवन बिताना असंभव है। काल के गुणधर्म के कारण योगदर्शन लुप्त प्रायः हो गया है। सांख्य दर्शन निरन्तर उन्नति कर रहा है। उसकी सभी उपलब्धियों पर पूर्णरूप से तामसिक वृत्तियों का आधिपत्य है। अतः उसका उपयोग वे वृतियाँ मात्र अपने स्वार्थ के लिए कर रही हैं। ऐसी स्थिति में मानव शांति एक सुखद कल्पना मात्र है।

तामसिक वृत्तियों के कारण ईश्वर, कल्पना का ही विषय है। जीवन की सच्चाई लुप्त हो चुकी है। एक सर्वमान्य सिद्धान्त बन गया है कि अध्यात्मज्ञान प्राप्ति का समय मात्र वृद्धावस्था ही है। कैसी भ्रांति फैला दी है, मानो अध्यात्म ज्ञान व्यावहारिक जीवन में एक अड़चन है। अगर वह ईश्वर व्यावहारिक जीवन में सार्थक नहीं था, तो बुढ़ापे में वह क्या कर देगा?
  • बुढ़ापे में सभी अंग प्रत्यंग शिथिल पड़ जाते हैं। अनेक प्रकार की बीमारियाँ घेर लेती हैं। उन्हीं कष्टों की तरफ ध्यान रहेगा, ईश्वर याद ही नहीं आएगा। अतः सभी प्रकार के ज्ञान प्राप्त करने का समय किशोरावस्था ही है।

  • अध्यात्म-विज्ञान, मनुष्य को पूर्ण सार्थक जीवन जीने के योग्य बनाता है। हमारे धर्म में घुसी हुई भ्रांति के कारण ही धर्म का पतन हुआ है। मेरे पास प्रथम बार कुछ पॉलीटेक्निक कॉलेज और मेडिकल कॉलेज के छात्र आये। उन्होंने पूछा अध्यात्म विज्ञान कैसा विज्ञान है और मनुष्य जीवन में इसकी क्या सार्थकता है? मैंने कहा, "जहाँ आपका भौतिक विज्ञान खत्म होता है, आध्यात्म विज्ञान वहाँ से शुरू होता है। आपका विज्ञान एक टैस्ट ट्यूब में कैद है। हमारे विज्ञान की टैस्ट ट्यूब पूरा ब्रह्माण्ड है।" उन्हें मेरी बात बहुत ही बुरी लगी।

  • उन्होंने ताने के रूप में कहा, "हमारे वैज्ञानिक तो चन्द्रमा पर पहुँच गये और आप लोग पहुँच गये रसातल में, और आप अध्यात्म विज्ञान रूपी काल्पनिक ज्ञान को बड़ा बताते हो। "मैंने कहा, "बेटा। आपकी बात ठीक है, परन्तु जहाँ सच्चाई है, वहाँ तो वैसा ही है, जैसा मैंने कहा। इससे वे और उत्तेजित हो गये और मेरी तरफ हाथ से इशारा करते हुए कहा "आप ही सच्चाई बताने निकले हैं क्या? दूसरे बड़े-बड़े मठाधीश क्या कर रहे हैं?

मैं अच्छी तरह जानता था कि मुझे यही बातें सुनने को मिलेगी। मैंने कहा, "देखो बेटा जैसा चाहो प्रमाण पत्र दे जाना, मैं सहर्ष स्वीकार कर लूँगा। परन्तु प्रमाणपत्र देने से पहले मेरी बात तो सुनो।" तो वे कुछ शांत हुए और सुनने समझने के लिए तैयार हो गये। मैंने कुण्डलिनी महाविज्ञान, योगदर्शन और शक्तिपात की बात समझाकर, इस संबंध की पुस्तकें उन्हें दे दी। वे पुस्तकें अपने हॉस्टल में ले गये। कई साथियों ने उन्हें पढ़ा।
  • इसके बाद करीब 25-26 छात्र मेरे पास आये, और बोले कि पुस्तकों में जो लिखा है उसकी अनुभूति जब तक हमें नहीं होती, हम नहीं मानेंगे। मैंने कहा, "कोई भी नहीं मानेगा।" जिस प्रकार ध्यान की विधि मैंने बताई, वे मेरे सामने बैठ कर ध्यान करने लगे। ज्योंहि मन शांत हुआ, उन्हें कुछ आनन्द आने लगा। और ज्योंहि वे लोग मानसिक रूप से तैयार हुए, शक्तिपात की लहर उनमें प्रवेश कर गई और सभी को यौगिक क्रियाएँ स्वतः होने लगी।

  • करीब आधे घंटे बाद मुद्राएँ बंद हो गई। मैंने उनसे पूछा, "आप लोग यह कैसी कसरत करने लगे। क्या मेरा कमरा खेल का मैदान था?" लड़कों की स्थिति बड़ी विचित्र हो गई। कहने लगे "हमने नहीं किया, यह तो हमारी इच्छा के विपरीत हो गया।" मैंने कहा," मैं देख रहा था, आप ही कर रहे थे।" उन्होंने कहा, "आपके आदेश के अनुसार आँख बंद करके, आज्ञाचक्र पर ध्यान केन्द्रित कर रहे थे कि अचानक अन्दर से ये क्रियाएँ करवाई जाने लगी। हमने आँखें खोलने का प्रयास भी किया परन्तु आँखे नहीं खुली। शरीर को मजबूती से रोकने का प्रयास किया, परन्तु नहीं रोक सके। आखिर सोचा, होने दो, देखें आगे क्या होता है? अब अपने आप बंद हो गई। कोई अंदर से निर्देश दे रहा था, उसी कारण से हो रही थी। अन्दर कौन दिशा निर्देश दे रहा था, हमें दिखाई नहीं दिया!"

  • तब मैंने कहा, "इसका अर्थ यह हुआ कि अन्दर कोई ऐसी शक्ति भी है, जो आपको अपनी इच्छा से चला सकती है।" वे बोले, "अब इसमें तर्क की गुंजाईश ही नहीं।" मैं बोला "फिर अन्दर वाले से गहरी दोस्ती करो, वह आपको बहुत कुछ बताएगा।" इसके बाद वे प्रतिदिन शाम को 5 और 6 के बीच आकर ध्यान करने लगे और सभी को विभिन्न प्रकार की यौगिक क्रियाएँ होती। ज्यों हि कुण्डलिनी आज्ञाचक्र के निकट पहुँची प्राणायाम स्वतः होने लगा। तब मैंने कहा कि इस दीक्षा में मंत्र दीक्षा के बिना आप समाधिस्थ नहीं हो सकोगे। आज्ञाचक्र तक तो हठ योग से भी काम चल जाता है, परन्तु आज्ञाचक का भेदन करके परबह्म (सत +चित + आनन्द : सच्चिदानन्दघन) के जगत् में प्रवेश करने के लिए उपयुक्त मंत्र का जप, ध्यान के साथ नितान्त जरूरी है।

  • तब तक वे सभी मानसिक रूप से तैयार हो चुके थे। दीक्षा के बाद थोड़े दिनों में उनकी समाधि लगने लगी। तब एक दिन मैंने उनसे कहा, "बेटा। अब जो भी प्रमाणपत्र देना चाहो, दे दो, मैं सहर्ष स्वीकार करने को तैयार हूँ।" लड़के बहुत ही शर्मिन्दा हुए और बोले, "गुरुजी। आप हमें कुछ भी कहें, हम निर्दोष थे। "क्या भारत के आध्यात्मिक जगत में यह ज्ञान करवाया जा रहा है?

  • अतः मेरी यह मान्यता है कि जब संसार के लाखों युवा अपनी आन्तरिक चेतना की अभिवद्धि करके भौतिक-विज्ञान पर शोध कार्य करेंगे, तो भौतिक विज्ञान की असंख्य समस्याएं सुलझ जाऐंगी। मैं सामूहिक दीक्षा देता हूँ। उस परमसत्ता के लिए एक लाख लोगों को चेतन करने के लिए एक क्षण के समय की भी आवश्यकता नहीं। अगर मेरे सामने एक लाख लोग दीक्षा लेने बैठे हैं तो उनमें से सभी सकारात्मक लोग एक साथ चेतन हो जायेंगे, चाहे उनकी संख्या कितनी ही अधिक क्यों न हो। सामूहिक शक्तिपात दीक्षा बिना, विश्वशांति असम्भव है। अतः विश्व के सभी सकारात्मक स्त्री-पुरुषों को सप्रेम आमंत्रित करता हूँ।

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