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पूर्वजन्म और पूर्वाभास का सत्यापन सम्भव है।
03 दिसम्बर 1988
गुरुदेव श्री रामलालजी सियाग
एवीएसके, जोधपुर के संस्थापक और संरक्षक

अगर मनुष्य सच्चे अर्थों में अध्यात्मवादी है तो उसका सीधा सम्पर्क अपने ही शरीर स्थित आत्मा और परमात्मा तत्त्व से है। यह तत्त्व ही संसार के सर्वभूतों के कारण हैं। अतः भूत भविष्य का सभी सच्चा ज्ञान सम्भव है। भगवान् श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है :- अध्याय 15 श्लोक 7 व 8 में

ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः। मनः षष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति॥15:7॥

इस देह में यह जीवात्मा मेरा सनातन अंश है, त्रिगुणमयी माया में स्थित हुई मन सहित पाँचों इन्द्रियों को आकर्षित करता है।

शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्वरः। गृहीत्वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाशयात्॥15:8॥

वायु गन्ध के स्थान से गन्ध को जैसे (ग्रहण करे ले जाता है वैसे ही) देहादिकों का स्वामी जीवात्मा भी जिस पहले शरीर को त्यागता है, उससे इन मन सहित इन्द्रियों को ग्रहण करके फिर जिस शरीर को प्राप्त होता है, उसमें जाता है।

  • उपर्युक्त से यह स्पष्ट होता है कि जीवात्मा का साक्षात्कार होने का अर्थ है परमात्मा का साक्षात्कार और प्रत्यक्षानुभूति हो गई। क्योंकि जीवात्मा परमात्मा का ही सनातन अंश है।अतः वह अमर है। उसने जितने भी शरीरों में वास किया है और आगे जितने शरीरों में वास करता हुआ संसार क्रम को निरन्तर गतिशील रखेगा, उसका ज्ञान सम्भव है। भगवान ने सातवें अध्याय के 26वें श्लोक में कहा है :

    वेदाहं समतीतानि वर्तमानानि चार्जुन। भविष्याणि च भूतानि मां तु वेद न कश्चन॥7:26॥

    "हे अर्जुन ! पूर्व में व्यतीत हुए और वर्तमान में स्थित तथा आगे होने वाले सभी भूतों को, मैं जानता हूँ, परन्तु मुझको कोई भी नहीं जानता है।'

  • इससे यह बात स्पष्ट होता है कि ईश्वर तत्त्व को जानने वाला ही भूत और भविष्य को जान सकता है। इस युग के सभी धर्माचार्यों ने युग के गुणधर्म के कारण अध्यात्म को केवल व्यवसाय के रूप में अपना रखा है। धार्मिक ग्रन्थ कुछ बोलते हैं और वे अपनी चालाकी और तर्कबुद्धि के बल से लोगों को और ही कुछ समझा रहे हैं। क्योंकि इस समय का तथाकथित ज्ञान मनुष्य को कुछ परिणाम नहीं देता है, अतः संसार के लोगों का विश्वास धर्मगुरुओं से उठता जा रहा हैं। क्योंकि धर्मगुरुओं ने इसे पेट से जोड़ लिया है, अतः इसे चलाते रहना ही उनकी मजबूरी है। इस प्रकार की हठधर्मी वृत्तियों के कारण धर्म के विरुद्ध विद्रोह प्रारम्भ हो गये। भौतिक विज्ञान की उन्नति ने अध्यात्म गुरुओं की स्थिति और खराब कर दी।इस लिए अध्यात्म और भौतिक के रूप में एक ही तत्त्व विभाजित हो गया। दोनों दलों में भयंकर टकराव और दुर्भाव निरन्तर बढ़ता ही गया। क्योंकि भौतिक विज्ञान एक सच्चाई है,और सत्य, सत्य को आकर्षित करता है, इसलिए संसार के लोगों ने अध्यात्म को छोड़, भौतिक विज्ञान के सहारे सुख शान्ति की खोज प्रारम्भ कर दी।

  • मनुष्य शरीर की सभी प्रकार की सुख सुविधाएँ भौतिक विज्ञान ने उपलब्ध करा दीं, परन्तु संसार के मानव को सुख और शान्ति फिर भी नहीं मिल सकी। ज्यों-ज्यों विज्ञान उन्नति करता गया, अशान्ति बढ़ती ही गई। आज जो वस्तुस्थिति संसार की है, उसने विज्ञानवेत्ताओं को गहराई से सोचने के लिए मजबूर कर दिया है। आज वैज्ञानिक दबी जुबान से यह स्वीकार करने लगे हैं कि ज्ञान प्राप्त करने के उसके भौतिक साधनों के अतिरिक्त अन्य साधन भी हैं।

यह एक शुभ संकेत है। सच्चाई पसन्द' और 'सच्चाई परख' लोग ही इस दिशा में तरक्की करके संसार को कुछ दे सकेंगे। बाकी जिन आध्यात्मिक गुरुओं से संसार के लोग उम्मीद लगाए बैठे थे, उनसे लोग निराश हो चुके हैं। थोथा उपदेश, कर्मकाण्ड प्रदर्शन, स्वांग, शब्द जाल, तर्कशास्त्र और अन्धविश्वास से लोग पूर्ण रूप से निरुत्साहित हो चुके हैं। इसके विपरीत जिन-जिन देशों ने वैज्ञानिक उन्नति की है, वहाँ अशान्ति व हिंसा के ताण्डव नृत्य ने लोगों को भयभीत कर दिया है।
  • अतः उनको भी इस पथ के अलावा शान्ति प्राप्त करने का दूसरा रास्ता खोजना पड़ रहा है। अमेरिका में प्रवचन देते हुए श्रद्धेय स्वामी विवेकानन्द जी ने कहा था - "विभिन्न मतमतान्तरों या सिद्धान्तों पर विश्वास करने के प्रयत्न हिन्दू धर्म में नहीं है, वरन् हिन्दू धर्म तो प्रत्यक्षानुभूतियों और साक्षात्कार का धर्म है। केवल विश्वास का धर्म, हिन्दू धर्म नहीं है। हिन्दू धर्म का मूलमंत्र तो 'मैं' आत्मा हूँ, यह विश्वास होना और तद्रुप बन जाना है।" आज हमारे धर्म से प्रत्यक्षानुभूति और साक्षात्कार की बात पूर्णरूप से विदा हो चुकी है। यही धर्म का प्राण थी। अतः इसके अभाव में प्राणहीन धर्म मानव को कोई लाभ पहुंचाने की स्थिति में नहीं है।

  • "परिवर्तन" प्रकृति का अटल सिद्धान्त है। कोई भी शक्ति इसे प्रभावित नहीं कर सकती है। यह क्रम अनादि काल से चलता आया है। अतः निराशा का कोई कारण नहीं। अंधेरे और प्रकाश का संघर्ष हमारे अन्दर अनादि काल से चला आ रहा है। रात्रि के देवता कभी नहीं चाहते कि प्रकाश हो परन्तु फिर भी रात और दिन का क्रम अनादि काल से चला आ रहा है। हमें खुले दिल से हमारी कमजोरी को स्वीकार करके आध्यात्मिक जगत् में शोध कार्य प्रारम्भ करने चाहिए, जिस प्रकार भौतिक विज्ञान तत्काल परिणाम देना प्रारम्भ कर देता है उसी प्रकार उसका जनक अध्यात्म विज्ञान भी परिणाम देता है।

  • इस जगत् के सभी सौदे नगद के है। यहाँ उधार का काम ही नहीं। परिणाम के अभाव में ही लोग इससे विमुख हुए हैं। आध्यात्मिक विज्ञान भौतिक विज्ञान का जनक है। आज तक का सारा प्रकट संसार उसी परमसत्ता की देन है। पिता पुत्र में द्वेष कैसा? इस कृत्रिम द्वेष भाव ने ही संसार को आज की अशान्त स्थिति में लाकर खड़ा कर दिया है। इसके बारे में महर्षि श्री अरविन्द ने स्पष्ट कहा है:- "एक सम्पूर्ण आध्यात्मिक जीवन के लिए हर कार्य आवश्यक है"। अर्थात् जीवन का हर कार्य कमोवेश अध्यात्म से ओत-प्रोत है। वैदिककाल के बाद मनुष्य निरन्तर उस परमसत्ता से अलग हटता गया।

आज का मानव उस क्रमिक अलगाव की प्रक्रिया के कारण, उस परमसत्ता से सर्वाधिक दूरी पर आकर खड़ा हो गया है। कृत्रिम पतन के साथ हम लोगों ने 'इहलोक' के स्थान पर केवल 'परलोक' की तरफ ताकना प्रारम्भ कर दिया। समाज के आधे अंग-स्त्रियों को पंगु बना कर रख दिया। उसे आध्यात्मिक क्षेत्र में बहुत कुछ बातों पर प्रतिबन्ध लगा दिया। जगत् जननी के साथ इस अन्याय के कारण ही संसार आज इतना दुःखी है। स्त्री जाति का माँ का स्वरूप, बहिन का स्वरूप, दादी का स्वरूप आदि सभी स्वरूप भूलकर उसको केवल भोग की वस्तु ही माना जा रहा है। संसार के मानव ने जगत् जननी की ऐसी दुर्गति कर दी कि उसे रसालत में पहुँचा दिया है। हमारे प्रायः सभी धर्मगुरुओं ने कंचन और कामिनी का जो स्वरूप बना डाला है, वही दुःखों का कारण है। इसके अतिरिक्त आराधनाओं का ऐसा स्वरूप बना कर रख दिया कि जिसे स्त्रियाँ अपनी प्राकृतिक संरचना के कारण करने में असमर्थ हैं।
  • जब तक धर्म का असली स्वरूप प्रकट नहीं हो जाता, इस क्षेत्र में प्रगति और शान्ति असम्भव है। श्री अरविन्द ने मृणालिनी देवी को पत्र लिखा था-"ईश्वर यदि है तो उनके अस्तित्व को अनुभव करने का, उनका साक्षात्कार प्राप्त करने का कोई-न-कोई पथ होगा, वह पथ चाहे कितना भी दुर्गम क्यों न हो, उस पथ से जाने का मैंने दृढ़ संकल्प कर लिया है। हिन्दू धर्म का कहना है कि अपने शरीर के, अपने भीतर ही वह पथ है। उस पर चलने के नियम भी दिखा दिए हैं। उन सबका पालन करना, मैंने प्रारम्भ कर दिया है। एक माह के अन्दर अनुभव कर सका हूँ कि हिन्दू धर्म की बात झूठी नहीं है। जिन जिन चिह्नों की बात कही गई है, मैं उन सब की उपलब्धि कर रहा हूँ।"

  • महर्षि अरविन्द के अनुसार उस पथ पर चलकर हर प्राणी सिद्धि प्राप्त कर सकता है। इस पथ पर चलने के अधिकारी स्त्री-पुरुष दोनों बराबर के हकदार है। मेरी प्रत्यक्षानुभूतियों के अनुसार भी एक मात्र यही रास्ता है। जिस पर चलने से ही उस परमधाम तक की यात्रा सम्भव है। संसार के प्रायः सभी धर्म संसार की उत्पत्ति 'शब्द' से मानते हैं। इस सम्बन्ध में वेद स्पष्ट कहता है" आओ उस ज्योति में पहुँचे जो स्वर लोक की है, उस ज्योति में जिसे कोई खण्ड खण्ड नहीं कर सकता।" वेद स्पष्ट कहता है कि जिस ज्ञान को (आनन्द को) तामसिक वृतियों ने कैद कर रखा है, उसकी मुक्ति केवल "प्रकाशप्रद शब्द" से ही सम्भव है। वेद बारम्बार उस प्रकाशप्रद शब्द से जो दिव्य प्रकाश निकलता है, उससे मिलने वाले दिव्य आनन्द की प्रार्थना करता है। इस सम्बन्ध में महर्षि अरविन्द ने वेद रहस्य में लिखा है :वैदिक द्रष्टाओं ने प्रेम पर ऊर्ध्व से अर्थात् इसके स्रोत और मूल स्थान से दृष्टिपात किया और उन्होंने अपनी मानवता में उसे दिव्य आनन्द के प्रवाह के रूप में देखा और ग्रहण किया।

  • मित्र देव के इस आध्यात्मिक वैश्व आनन्द को वैदान्तिक आनन्द अर्थात् वैदिक मयस् की व्याख्या करते हुए तैत्तिरीय उपनिषद् इसके विषय में कहता है कि "प्रेम इसके शीर्ष स्थान पर है।" परन्तु प्रेम के लिए वह जिस शब्द - 'प्रियम्' को पसंद करती है, उसका ठीक अर्थ है आत्मा के आंतरिक सुख और संतोष के विषयों की आनन्ददायकता। वैदिक गायकों ने इसी मनोवैज्ञानिक तत्त्व का उपयोग किया है। उन्होंने मयस् और प्रयस का जोड़ा बनाया है। मयस् है सब विषयों से स्वतंत्र आन्तरिक आनन्द तत्त्व और प्रयस है पदार्थ और प्राणियों में आत्मा को मिलने वाले हर्ष और सुख के रूप में उस आनन्द का बहि-प्रवाह। वैदिक सुख है यही दिव्य आनन्द जो अपने साथ पवित्र उपलब्धि का और सब पदार्थों में निष्कलंक सुख के अनुभव का वरदान लाता है। आज संसार से वह प्रकाशप्रद शब्द जिसके दिव्य प्रकाश से दिव्य आनन्द की अनुभूति होती है, कहाँ चला गया? जब तक हम संसार में इसकी भौतक रूप से प्रत्यक्षानुभूति नहीं करवा देते, काम चल ही नहीं सकता है। इस दिव्य आनन्द और शब्द के बारे में भगवान् ने गीता में स्पष्ट कहा है। शब्द से सृष्टि की रचना के सम्बन्ध में भगवान् ने 17वें अध्याय के 23वें श्लोक में कहा हैः

    'ऊँ' तत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्मृतः। ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च । यज्ञाश्च विहिताः पुरा। 23॥

    (हे अर्जुन!) "ऊँ तत् सत् ऐसे (यह) तीन प्रकार का सच्चिदानन्द घन ब्रह्म का नाम कहा है। उसी से सृष्टि के आदिकाल में ब्राह्मण और वेद तथा यज्ञादिक रचे गये है।"

  • इससे स्पष्ट होता है कि संसार की उत्पति उसी प्रकाशप्रद शब्द (ईश्वर) से हुई है। उस शब्द से जो दिव्य आनन्द आता है, उस सम्बंध में भगवान् ने गीता के 5वें अध्याय के 21वें श्लोक तथा छठे अध्याय के 21वें, 27वें तथा 28वें श्लोक में कहा है:

    बाह्मस्पर्शेष्वसक्तात्मा विन्दत्यात्मनि यत्सुखम्। स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते ।। 5:21॥

    बाहर के विषयों में आसक्तिरहित अन्तःकरण वाला पुरुष अन्तः करण में जो भगवत् ध्यान जनित आनन्द है, उसको प्राप्त होता है। वह पुरुष सच्चिदानन्दघन परब्रह्म परमात्मारूप योग में एकीभाव से स्थित हुआ, अक्षय आनन्द को अनुभव करता है।

    सुखमात्यन्तिकं यत्तद्बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम्। वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्त्वतः।।6.21।।

    "इन्द्रियों से अतीत केवल शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धि द्वारा ग्रहण करने योग्य जो अनन्त आनन्द है, उसको जिस अवस्था में अनुभव करता है और जिस अवस्था में स्थित हुआ यह योगी भगवत्स्वरूप से नहीं चलायमान होता है।

    प्रशान्तमनसं ह्येनं योगिनं सुखमुत्तमम्। उपैति शान्तरजसं ब्रह्मभूतमकल्मषम्।।6.27।।

    क्योंकि जिसका मन अच्छी प्रकार - शान्त है (और) जो पाप से रहित है और जिसका रजोगुण शान्त हो गया है, ऐसे इस सच्चिदानन्दघन ब्रह्म के साथ एकीभाव हुए योगी को अति उत्तम आनन्द प्राप्त होता है। -

    युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी विगतकल्मषः। सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते।।6.28।।

    "पाप रहित योगी इस प्रकार निरंतर आत्मा को (परमात्मा में ) लगाता हुआ, सुख पूर्वक परब्रह्म परमात्मा की प्राप्तिरूप अनन्त आनन्द को अनुभव करता है"।

  • आज वह आनन्द कहाँ चला गया ? गीता के उपदेशक और व्याख्याता त्याग, तपस्या, दान, पुण्य, स्वर्ग, नरक का उपदेश दे रहे हैं। इस मूल तत्त्व की अनुभूति क्यों नहीं करवा रहे हैं? गीता के उपदेश को अर्जुन से अधिक कोई नहीं समझ सकता है। उसने उपदेश सुनने के बाद जो कुछ किया, गीता हमें वही दर्शाती है। अर्जुन ने कौनसा दान पुण्य, त्याग, तपस्या गीता का उपदेश सुनने के बाद किया ? वैदिक मनोविज्ञान (अध्यात्म विज्ञान)के अनुसार मनुष्य सात तत्त्वों से संघटित है. जिसके कोशों में आत्मा अन्तर्निहित है। वे हैं :- 1. अन्नमय कोश 2. प्राणमयकोश 3. मनोमयकोश 4. विज्ञानमय कोश 5. आनन्दमयकोश 6. चित्मय कोश और 7. सत्मयकोश। अन्न से लेकर विज्ञान तक चार तत्त्व भौतिक सत्ता से सम्बन्धित है और आनन्द से सत् तक तीनों उस परमसत्ता ( स त +चित + आनन्द ) सच्चिदानन्दघन परब्रह्म परमात्मा से सम्बन्धित हैं।
  • हिन्दू दर्शन के अनसार मूलाधार से लेकर आज्ञाचक्र तक माया का क्षेत्र है। यानि अन्नमय कोश से विज्ञानयकोश तक माया का क्षेत्र है। इसके ऊपर के तीन लोक सत्य लोक, अलख लोक और अगम लोक उस परमसत्ता (सत्+चित्+आनन्द) के लोक हैं। आज्ञाचक्र को भेदकर ऊपर उठते ही जीवात्मा माया के क्षेत्र से निकल कर आनन्दमय कोश में प्रवेश कर जाता है। इसके साथ ही गीता और वेद में वर्णित अक्षय आन्तरिक दिव्य आनन्द की अनुभूति मनुष्य को होने लगती है। मेरे संत सद्‌गुरुदेव ने उस आनन्द को धरा पर अवतरित कर दिया है। उन्हीं की कृपा से, मैं उसकी प्रत्यक्ष रूप में अनुभूति कर रहा हूँ। आध्यात्मिक दृष्टि से मुझसे जुड़ने वाले लोगों को भी इसकी प्रत्यक्षानुभूतियाँ हो रही है, जो कि भौतिक जगत् में सत्यापित हो रही हैं। इस सम्बन्ध में ईसाइयों का पवित्र धार्मिक ग्रन्थ बाइबिल भी वही कहता है जो हमारे ग्रंथ कहते हैं। संसार की उत्त्पति के बारे में बाइबिल के संत जोहन 1: 1 से चार में कहा है :"आदिमें शब्द था, और शब्दपरमेश्वर के साथ था, और शब्द परमेश्वर था यहीं आदि में परमेश्वर के साथ था। सब कुछ उसी के द्वारा उत्पन्न हुआ और जो कुछ उत्पन्न हुआ है, उसमें से कोई भी वस्तु उसके बिना उत्पन्न नहीं हुई। उसमें जीवन था और वह जीवन मनुष्यों की ज्योति थी।

  • वेद और गीता में वर्णित अक्षय दिव्य आन्तरिक आनन्द के बारे में बाइबल में भजन संहिता23:5में कहा है:- "यह एक आन्तरिक आनन्द है जो सभी सच्चे विश्वासियों के हृदय में आता है। यह आनन्द हृदय में बना रहता है। सांसारिक आनन्द के समान यह आता-जाता नहीं है। उसका आनन्द पूर्ण है। वह हमारे हृदय के कटोरों को आनन्द से तब तक भरता है जब तक उमड़ न जाय। प्रभु का आनन्द जो हमारे हृदयों में बहता है, हमारे हृदयों से उमड़कर दूसरों तक बह सकता है।" आज संसार से वह दिव्य आनन्द और दिव्य प्रकाश कहाँ चला गया ? सभी धर्म जिस शब्द से सृष्टि की उत्पत्ति मानते हैं, उसकी प्रत्यक्षानुभूति और साक्षात्कार असम्भव क्यों हो गया है?

  • संसार यथा स्थिति चल रहा है। चारों कोश तो उपलब्ध है परन्तु तीन कोश (सत्+चित+आनन्द) गुम हो चुके हैं। जब तक उनकी उपलब्धि आम मानव के लिए सुलभ नहीं हो जाती है, विद्या पर अविद्या का अधिकार रहेगा। भौतिक विज्ञान तामसिक वृत्तियों के अधीन रहकर उनके आदेश का पालन करेगा। जिस दिन भौतिक विज्ञान अपने जनक अध्यात्म विज्ञान के आदेश पर चलने लगेगा, महर्षि अरविन्द के शब्दों में "धरा पर स्वर्ग उतर आवेगा।" हमारे सभी संतों ने हरिनाम की महिमा गाई है। भगवान ने भी गीता में अपनी विभूतियों का वर्णन करते हुए 10 वें अध्याय के 25वें श्लोक में जपयज्ञ (नामजप) को सर्वोत्तम यज्ञ बताते हुए अपनी विभूति बताया है।

  • बंगाल में जन्मे महान् आत्मा चैतन्य महाप्रभु, प्रभु जगबन्धु, रामकृष्ण परमहंस, तथा संत सद्‌गुरु नानक देव जी तथा संत कबीर आदि सभी संतों ने हरिनाम को ही मोक्ष का साधन बताया है। संत सद्‌गुरुदेव नानक देव जी ने नाम की महिमा गाते हुए कहा है: "भांग-धतूरा नानका, उतर जाय परभात। नाम खामारी नानका, चढ़ी रहे दिन रात॥" संत कबीर ने एक कदम और आगे बढ़कर हरिनाम की महिमा गाते हुए कहा है"नाम अमल उतरै न भाई। और अमल छिन-छिन चढ़ि उतरै नाम अमल दिन बढे सवायो।"

  • जिस मयस् (दिव्य आनन्द)की बात वेद करता है, जिसका गुणगान बाइबल में है, जिस अक्षय आनन्द की बात भगवान् ने गीता में की है, जिस नाम खुमारी और नाम अमल की बात सभी संतों ने की है, उसको प्राप्त करना ही आध्यात्मिक आराधना का उद्देश्य है। इसके अलावा सब आराधनाएँ त्रिगुणमयीमाया के प्रभाव क्षेत्र की हैं।
  • स्वामी श्री विवेकानन्द जी ने एक कदम और आगे बढ़कर कह डाला - "अनुभूति-अनुभूति की यह महती शक्तिमय वाणी भारत के ही आध्यात्मिक गगन मण्डल से आविर्भूत हुई है। एक मात्र हमारा वैदिक धर्म ही है जो बारम्बार कहता है, ईश्वर के दर्शन करने होंगे, उसकी प्रत्यक्षानुभूति करनी होगी, तभी मुक्ति सम्भव है। तोते की तरह कुछ शब्द रट लेने से काम चल ही नहीं सकता है।" स्वामी जी ने यह बात अनायास ही नहीं कही है।वे भविष्य दृष्टा थे। उन्हें बहुत अच्छी प्रकार ज्ञान था कि भारत आगे चलकर संसार में इन तथ्यों को सत्यापित करेगा। संतों की वाणी निरर्थक नहीं होती है।

  • युग के गुणधर्म के कारण तामसिक वृत्तियों की प्रधानता होने से उस समय लोग उसे समझ नहीं पाते हैं। महर्षि अरविन्द ने इस सम्बन्ध में जो घोषणा की है, वह पहले के संतों की बातों को प्रमाणित करती है। महर्षि अरविन्द ने उस परमतत्त्व को धरा पर अवतरित कराने के लिए अपने अमूल्य जीवन की आहुति दे डाली। वे अपने जीवन में ही सफलता के सर्वोच्च शिखार पहुँच गये थे। उस परमतत्त्व के धरा पर अवतरित होने के बरे में उन्होंने घोषणा की है - "24 नवम्बर 1926 को श्रीकृष्णका पृथ्वी पर अवतरण हुआ था। श्रीकृष्ण अतिमानसिक प्रकाश नहीं है। श्रीकृष्ण के अवतरण का अर्थ है, अधिमानसिक देव का अवतरण जो जगत् को अतिमानस और आनन्द के लिए तैयार करता है। श्रीकृष्ण आनन्दमय हैं। वे अतिमानस को अपने आनन्द की ओर उबुद्ध करके विकास के मार्ग का समर्थन और संचालन करते हैं।" -

  • उपर्युक्त भविष्यवाणी नहीं है। एक सच्चाई के अवतरित होने की घोषणा है। श्री अरविन्द के अनुसार वह परमसत्ता अपने क्रमिक विकास के साथ सारे संसार को आकर्षित करने लगेगी। मेरी प्रत्यक्षानुभूति के अनुसार वह सत्ता 1982 के प्रारम्भ से प्रकट होना प्रारम्भ कर देगी। 1992 तक वह भारत में काफी फैल जायेगी और आगे के तीन वर्षों में पूरे संसार में फैल जावेगी। क्योंकि अध्यात्म ज्ञान प्रत्यक्षानुभूति और साक्षात्कार का विषय है, इसमें उपदेश या ग्रन्थ अधिक सहायक सिद्ध नहीं हो सकते। मुझे जो कुछ भी मिला उसमें उपदेश या ग्रन्थ का एक प्रतिशत भी सहयोग नहीं रहा है। संत सद्‌गुरुदेव निराकार ब्रह्म के साकार स्वरूप होते हैं। उनकी कृपा के बिना इस जगत् (अध्यात्म जगत् ) में प्रवेश असम्भव है। मुझे सन् 1967 से 1982 तक विभिन्न प्रकार की आराधनाएँ मजबूरी में फंसकर करनी पड़ी। आज तक जितनी आराधनाएँ मैंने की और जो अब कर रहा हूँ, वह सब परिस्थितियों वश करनी पड़ रही हैं। प्रत्येक का नया परिणाम मिल रहा है। ईश्वर कृपा और गुरुदेव के आशीर्वाद के कारण पग-पग पर दिशा निर्देश और पथ प्रदर्शन मिल रहा है।

  • मैं एक साधारण गृहस्थी प्राणी हूँ। मेरे जैसे ना चीज के माध्यम से यह सब होना अपने आप में एक आश्चर्य और विचित्र बात है। मैं भी रजोगुण से अत्यधिक प्रभावित प्राणी हूँ। आज भी वह वृत्ति मुझे रह रह कर अपनी तरफ आकर्षित करती है। परन्तु मैं अनुभव कर रहा हूँ कि कोई अदृश्य शक्ति मुझे एक कदम भी उस वृत्ति की तरफ नहीं बढ़ने दे रही है। अतः मेरे माध्यम से जो शक्ति प्रकट हो रही है, उसमें मेरी बुद्धि से किया हुआ कुछ भी प्रयास नहीं हैं। इस सम्बन्ध में मझे किसी प्रकार का भ्रम नहीं है। जो कुछ हो रहा है, वह मेरे असंख्य गुरुओं की आराधना का फल है। मुझे मेरे परमदयालु संत सद्‌गुरुदेव की अहैतुकी कृपा के कारण यह सब अनायास ही प्राप्त हो गया। मैं तो मात्र गुरु कृपा का प्रसाद बाँटने संसार में अकेला ही निकल पड़ा हूँ। मैं अच्छी प्रकार जानता हूँ कि मैं कर्ता नही हूँ। इसलिए मुझे किसी प्रकार की निराशा भी नहीं होती। घाटे-नफे का अधिकारी तो वही जगत् सेठ है, मैं तो मात्र अपनी मजदूरी का अधिकारी हूँ।

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