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मंत्र का रहस्य
गुरुदेव श्री रामलालजी सियाग
एवीएसके, जोधपुर के संस्थापक और संरक्षक

‘मंत्र विद्या’ हमारे देश में आदिकाल से चली आ रही है। शब्द से सृष्टि की उत्पत्ति के सिद्धांत पर ही हमारे ऋषियों ने मन्त्रों की रचना की है। आनन्द और भौतिक सुख में रात और दिन का अन्तर है। आनन्द निरन्तर जीवन भर एक ही स्थिति में रहता है, परन्तु सुख की स्थिति निरन्तर बदलती रहती है।

  • यह हमारे दर्शन का उच्चतम दिव्य विज्ञान है। मंत्र विद्या का पतन नकली गुरुओं के कारण हुआ।

  • बिना गुरु दीक्षा के कोई मंत्र ‘सिद्ध’हो ही नहीं सकता। मेरे माध्यम से जो परिवर्तन मानवता में आ रहा है मात्र ‘मंत्र शक्ति’का प्रभाव है। शब्द ब्रह्म से परब्रह्म की प्राप्ति के ही सिद्धान्त को, मैं पूर्ण सत्य प्रमाणित कर रहा हूँ।

  • लोग कहते हैं, विज्ञान के इस युग में मंत्र की बात केवल अन्धविश्वासी लोग ही मानते हैं। मैं चुनौती के साथ कहता हूँ कि मैं तो विज्ञान के शोधकर्ताओं से मिलने ही संसार में निकला हूँ। क्योंकि इस समय संसार में पूर्णरूप से तामसिक वृत्तियों का साम्राज्य है, इसलिए इन वृत्तियों के साधक ही संसार में नजर आ रहें हैं। ऐसे नाटक दिखाकर लोगों को आकर्षित करते हैं, आज की भाषा में उन्हें जादूगर कहते हैं। ये लोग मात्र प्रेतपूजक होते हैं।

यान्ति देवव्रता देवान् पितृ़न्यान्ति पितृव्रताः ।
भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम्

‘ देवताओं को पूजने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं। पितरों को पूजने वाले पितरों को प्राप्त होते हैं, भूतों को पूजने वाले भूतों को प्राप्त होते हैं और मेरे भक्त मेरे को ही प्राप्त होते हैं।’

भगवान श्रीकृष्ण

|| गीता - 9:25 ||
  • जब शब्द से सर्वभूतों की उत्पत्ति मानते हो, फिर शब्द से ही देव और दानव सभी की उत्पत्ति हुई है। आज संसार में उन्हीं शब्दों (मंत्रों) के ज्ञाता सर्वाधिक है जिनसे भूतों (प्रेतों) की उत्पत्ति हुई है। यही कारण है कि ‘परा-मनोविज्ञान’ पर शोध करने वाले पश्चिम के शोधकर्ताओं को ‘ऊर्ध्व गति’ और ‘अधोगति’ की तरफ ढकेलने वाली शक्तियों का बिलकुल ही ज्ञान नहीं है। जबकि इनमें रात-दिन का अन्तर है। क्योंकि आज उनके पास Baptized with the ghost (प्रेतों के पूजक) के ज्ञाता ही पहुँचे हैं।

  • जब उनके पास Baptized with the holy ghost (पवित्रात्मा) के ज्ञाता पहुँच जाएँगे, तभी वे लोग अपने कार्यों में पूर्ण सफलता प्राप्त करेंगे। क्योंकि भौतिक विज्ञान, ऊर्ध्व गमन कर रहा है अतः ऊर्ध्व गमन कराने वाली शक्तियाँ ही भौतिक विज्ञान का सही पथ प्रदर्शन कर सकती हैं। आज ऊर्ध्व गति वाली शक्तियों का ह्रास होने के कारण ही हम हमारे दर्शन को प्रमाणित करने की स्थिति में नहीं हैं। हमारा दर्शन मानव का विकास, गीता में वर्णित १३वें अध्याय के २२वें श्लोक एवं पतंजलि योगदर्शन के कैवल्यपाद के ३४ वें श्लोक में वर्णित स्थिति तक कर देता है। यही बात प्रमाणित करने, मैं विश्व में निकला हूँ।

  • हमारे ऋषियों ने गहन शोध के बाद इस सिद्धान्त को स्वीकार किया कि जो ब्रह्माण्ड में है, वही सब पिण्ड में है। इस प्रकार मूलाधार चक्र से आज्ञाचक्र तक का जगत् माया का और आज्ञाचक्र से लेकर सहस्रार तक का जगत् परब्रह्म का है, यह सिद्धान्त प्रतिपादित किया। वैदिक मनोविज्ञान (अध्यात्म विज्ञान) इसे स्वीकार करते हुए अपनी भाषा में मूलाधार से आज्ञाचक्र के जगत् को अन्नमयकोश, प्राणमय कोश, मनोमय कोश और विज्ञानमय कोश की संज्ञा देता है। यह जगत्-सत्ता का निम्नतर भाग है, जहाँ विद्या पर अविद्या का आधिपत्य है। आज्ञाचक्र से सहस्रार तक को आनंदमयकोश, चित्तमयकोश और सत्मयकोश की (सत् + चित् + आनंद = सच्चिदानंद) संज्ञा देता है। यह सत्ता का उच्चतर अर्द्ध है, जिसमें अविद्या पर विद्या का प्रभुत्व है। इस जगत् में अज्ञान, पीड़ा, या सीमा का नाम नहीं है।


  • ‘गुरु-शिष्य’ परम्परा में मंत्र दीक्षा का विधान है। शब्द की धारा के सहारे ही सहस्रार में पहुँचना संभव है, अन्यथा नहीं। इस संबंध में कबीर ने रहस्योद्घाटन करते हुए कहा है :

  • कबीरा धारा अगम की, सद्गुरु दई लखाय ।
    उलट ताहि पढ़िये सदा,स्वामी संग लगाय ॥

  • संत मत के अनुसार एक धारा अगम लोक से नीचे की ओर चली, वह सभी लोकों की रचना करती हुई मूलाधार में आकर ठहर गई। इस प्रकार सभी लोक उस जगत् जननी राधा (कुंडलिनी) ने रचे। मनुष्य जीवन में जाग्रत करके अपने स्वामी (कृष्ण) के पास पहुँचाई जा सकती है। राधा और कृष्ण (पृथ्वी एवं आकाश तत्त्व) के मिलन का नाम ही ‘मोक्ष’ है।

  • परन्तु जिस गुरु को आकाश तत्त्व (कृष्ण) की सिद्धि होती है, मात्र वही इस काम को कर सकता है, अन्य कोई नहीं। गुरु महिमा का हमारे शास्त्रों में बहुत बखान है, उसी को ध्यान में रखकर असंख्य गुरु प्रकट हो गये। ऐसा सुन्दर व्यवसाय संसार में कोई है ही नहीं। बिना पूँजी लगाए, आमदनी होती है। ऐसे ही गुरुओं के कारण गुरुपद जैसा गौरवमय पद बदनाम हो गया। गुरु की सर्वोत्तम व्याख्या है जो गोविन्द से मिलाय इसीलिए ईश्वर की स्थिति और प्राप्ति के संबंध में कहा गया है, जो सभी मानव शरीरों में व्याप्त हृदय में प्रतिक्षण पूर्णरूप से निवास करते रहने पर भी जो श्रीगुरुकृपाहीन को गोचर न होकर गुप्तवास कर रहा है वही वेदान्त का अन्तिम लक्ष्य सच्चिदानंद है। मंत्र का रहस्य जब तक समझ में नहीं आता, तब तक साधक उससे कुछ भी प्राप्त नहीं कर सकता।

  • मंत्र का रहस्य कैसे जाना जा सकता है, इस संबंध में मालिनी विजय तंत्र में कहा गया है
    शिष्येणापि तदा ग्राह्या यदा सन्तोषितो गुरुः ।
    शरीर द्रव्य विज्ञान शुद्धि कर्म गुणादिभिः ।। (3:48)

    बोधिता तु यदा तेन गुरुणा कृष्ट चेतसा ।
    तदा सिद्धिप्रदा ज्ञेया । नान्यथा वीरबन्दिते ।। (3:49)

    - मालिनी विजय तंत्र

  • मंत्र का रहस्य तभी समझ में आ सकता है, जब गुरु शिष्य के सद्गुणों से संतुष्ट हो जाते हैं। हे देवी! जब गुरु हृदय से प्रसन्न होते हैं, तभी मंत्र का रहस्य खोलते हैं, और मंत्र मुक्ति देता है, गुरु संतोष मात्रेण अन्यथा नहीं। शब्द से सृष्टि की उत्पत्ति के सिद्धान्त, विश्व के सभी धर्म मानते हैं। इसी सार्वभौम सिद्धान्त के आधार पर हमारे ऋषियों ने मंत्र शास्त्र की रचना की है।

  • सृष्टि के संबंध में ज्ञान संकलिनी तन्त्र में कहा है
    आकाशज्जायते वायुर्वायोत्पद्यते रविः ।
    रवेरुत्पद्यते तोयं तोयादुत्पते मही।। (25)

    - संकलिनी तन्त्र

  • आकाश से हवा, हवा से अग्नि, अग्नि से जल और जल से पृथ्वी उत्पन्न हुई है, और संसार के सभी प्राणी पृथ्वी से उत्पन्न हुए। हमारे शास्त्र भी इन्ही पाँच तत्त्वों से मनुष्य शरीर की रचना मानते हैं। पाँचों तत्त्वों की सूक्ष्मावस्था को ‘तन्मात्रा’ भी कहते हैं। जैसे पृथ्वी की ‘गन्ध’ तन्मात्रा, जल की ‘रस’ तन्मात्रा, अग्नि की ‘रूप’ तन्मात्रा, वायुः की ‘स्पर्श’ तन्मात्रा और आकाश की ‘शब्द’ तन्मात्रा। क्योंकि सृष्टि का जनक ‘शब्द’ तन्मात्रा है, इसलिए जिस प्रकार अधोगमन के कारण मनुष्यों की उत्पत्ति हुई, उसी प्रकार शब्द (मंत्र) के सहारे ऊर्ध्वगमन करता हुआ मनुष्य छह चक्रों और तीन ग्रन्थियों का वेधन करता हुआ अपने जनक आकाशतत्त्व (सहस्रार) में लय हो सकता है। इसी का नाम मोक्ष है।

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