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युग परिवर्तन अनिवार्य है
21 फरवरी 1988
गुरुदेव श्री रामलालजी सियाग
एवीएसके, जोधपुर के संस्थापक और संरक्षक

कालचक्र अबाध गति से निरन्तर चलता ही रहता है। संसार की हर वस्तु परिवर्तनशील है। शक्ति संतुलन ही शान्ति का द्योतक है। असंतुलन ही अशान्ति और दुःखों का कारण है। मानव जाति में आज जो अशान्ति नजर आ रही है, वह असंतुलन का ही कारण है।

  • आज तो स्थिति यह है कि तामसिकता का पलड़ा बहुत भारी है। संसार भर की राज सत्ता पर, वह शक्ति निरंकुश होकर एक छत्र शासन कर रही है। हम देख रहे हैं कि हमारे देश के सत्ताधारी वर्ग इसी प्रकार के तांत्रिकों का आशीर्वाद प्राप्त करने को भटकते रहते हैं। इस प्रकार तामसिकता के प्रभाव में उन्हें जो करना चाहिए, वही वे बेचारे करने को विवश हैं।

  • संसार में जब तक यह वर्ग सात्विक सत्ता के दिशा निर्देश से काम नहीं करने लगेंगे तब तक शांति पूर्ण रूप से असम्भव है। तामसिक शक्तियाँ चोर शक्तियाँ हैं। वे हमेशा नकली संत का भेष बनाकर धोखा देती हैं। सारी गड़बड ईश्वर की आड़ लेकर चल रही है। एक साधारण व्यक्ति भी कर्ण पिशाचनी की सिद्धि करके संसार को मूर्ख बनाकर एक सिद्ध पुरुष के रूप में ख्याति प्राप्त करके पूजा जा रहा है। तामसिकता का एक छत्र साम्राज्य होने के कारण लोगों की बुद्धि ऐसी भ्रमित कर रखी है कि वे भले-बुरे की पहचान ही नहीं कर सकते क्योंकि कुए में ही भांग पड़ी हुई है। अतः जिधर देखो उन्हीं के झुण्ड नजर आते हैं। अब ऐसी तामसिक शक्तियों का अत्याचार अपनी चरम सीमा पर पहुँच चुका है।

  • मैं ऐसे कई सज्जन लोगों से मिला हूँ, जब वे किसी संत के चमत्कारों की प्रशंसा करके उसके गुणों का बखान करते हैं तो मुझे उन सीधे-साधे और ईश्वर के प्रति जिज्ञासु लोगों पर बहुत तरस आता है। मैं चुपचाप सुनकर हँस देता हूँ। सभी घटी हई घटना को इस प्रकार बताते हैं कि बेचारे भोले-भाले लोग उनको अच्छा संत समझकर अच्छी भेंट पूजा करते हैं। कर्ण पिशाचनी अपने सीमित दायरे के अन्दर साधारण व्यक्ति के मन की बात जान कर उस व्यक्ति को बताने में सक्षम होती है जिसके अधीन वह कार्य करती है। अब वह तथाकथित संत जितना अधिक चतुर होगा उतना ही भौतिक लाभ उठाते हुए पर्दे के पीछे असलियत को छिपाये रखेगा।

  • आध्यात्मिकता के नाम पर आज इसी शक्ति का बोल बाला है। अन्धों में काणा ही राजा होता है, ठीक वही हालत आज संसार में आध्यात्मिक क्षेत्र में सर्वत्र व्याप्त है। धर्म प्रत्यक्षानुभूति का विषय है। इसमें उपदेश और अन्य भौतिक चमत्कार होते ही नहीं। जिस प्रकार सूर्य के निकलते ही अन्धकार पूर्ण रूप से समाप्त हो जाता है, और किसी को कुछ भी वस्तु दिखाने की जरूरत नहीं होती, हर व्यक्ति स्वतः ही स्वयं हर वस्तु को देखने में सक्षम हो जाता है, उस परमसत्ता से जुड़े हुए संत के साथ क्षणभर ही सत्संग करने से मनुष्य के अन्दर ऐसी रोशनी प्रकट हो जाती है कि उसे बताने की कोई आवश्यकता ही नहीं होती। उसका पथप्रदर्शन स्वयं सात्विक शक्तियाँ करने लगती हैं। क्योंकि प्रकाश होने पर अंधेरा भाग जाता है, ठीक वैसे ही उस व्यक्ति में सात्विक शक्तियों के चेतन होते ही तामसिक शक्तियाँ कोसों दूर भाग जाती हैं। ऐसी स्थिति में जब उसे स्वयं सब दिखने लगता है तो फिर उपदेश किस काम का? उपदेश तो मात्र झूठी सांत्वना का नाम है। उपदेश तो क्षणिक लाभ का प्रलोभन मात्र है। मैं देखता हूँ, संसार के अरबों लोग उपदेश सुन चुके हैं। अगर उससे कुछ लाभ होता तो आज संसार की ऐसी बुरी हालत कभी नहीं होती।

  • इस युग की भौतिक सत्ता पर पूर्ण रूप से तामसिक शक्तियों का अधिकार है। तामसिक शक्तियाँ अपने गुणधर्म के ही अनुसार उसका उपयोग कर रही हैं। यही कारण है कि भौतिक विज्ञान, प्राणियों के संहार के लिए काम में लिया जा रहा है। अगर संसार की राज सत्ता पर सात्विक शक्तियों का प्रभाव हो जाय तो स्थिति बिलकुल विपरीत हो जाएगी। इस समय तो बन्दर के हाथ में उस्तरा आने वाली स्थिति है। तामसिक शक्तियों ने भौतिक और आध्यात्मिक जगत् के लोगों के बीच में ऐसी झूठी काल्पनिक लक्ष्मण रेखा खींच दी है कि एक दूसरे के क्षेत्र दो भागों में बाँट दिये। संन्यासी लोग कहते हैं कि राजसत्ता को उनके क्षेत्र में बिलकुल हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं। दूसरी तरफ राज सत्ता के लोग खुला आरोप लगा रहे हैं कि धर्म गुरु राजसत्ता को प्रभावित करने के लिए धर्म का दुरूपयोग कर रहे हैं। इस प्रकार इन तामसिक शक्तियों ने दोनों वर्गों को अपने प्रभाव में लेकर, इतना भयंकर संघर्ष प्रारम्भ करवा दिया है कि किसी को समझने का अवसर ही नहीं देती है। तामसिक शक्तियों ने इस प्रकार संसार के जीवों को कष्ट देने में कोई कसर नहीं छोड़ी है।

  • सारे संसार में जो ताण्डव नृत्य तामसिक शक्तियाँ करने लगी हैं उसको देखने से ऐसा लगता है कि अब इनका अन्त बहुत निकट आ चुका है। हर कार्य की अति उसकी आखिरी सीमा होती है।

जब तक संसार की भौतिक सत्ता पर आध्यात्मिक सत्ता का शासन नहीं होगा, शान्ति असम्भव है।

- श्री अरविन्द

  • इस समय संसार के तथाकथित धर्माचार्यों और संतों ने तामसिक शक्तियों के प्रभाव के कारण पलायनवादी रुख अपना रखा है, वह बिल्कुल गलत है। संत और धर्मगुरु मानव मात्र का दुःख दूर करने के लिए भेजे जाते हैं। संसार से दूर भागने का अर्थ है वह तामसिक शक्तियों से या तो भयभीत हैं, या इतने उनके अधीन हो चुके कि उनका हर आदेश मान कर वे ऐसा कर रहे हैं।

  • सत्युग में हर प्राणी मात्र का सीधा सम्पर्क उस परमसत्ता से होता था, ऐसी स्थिति में सभी संत थे। युग के परिवर्तन के साथ-साथ ज्यों-ज्यों जीव उस परमसत्ता से दूर हटता गया, संतों ने प्रकट हो कर लोगों का पथ प्रदर्शन किया, त्रेता और द्वापर में हमें ऐसे असंख्य उदाहरण मिलते हैं। परन्तु धीरे-धीरे तामसिकता का शिकंजा मजबूत होता चला गया और आज ऐसा समय आ गया है कि एक मात्र उन्हीं शक्तियों का साम्राज्य है। तामसिकता की अति हो चुकी है। यही कारण है कि इनका अन्त होने वाला है। संसार के कई आध्यात्मिक संत ऐसी भविष्यवाणियाँ कर चुके हैं। पिछले कुछ समय से तो हमारे देश के सत्ता पक्ष के लोगों ने भी ऐसी बातें करनी प्रारम्भ कर दी है, जिसे सुनकर अचम्भा होता है। 21वीं सदी के भारत की तस्वीर जब सत्ता पक्ष दिखाता है तो तामसिक लोग इसका मजाक उड़ाते हैं। मुझे यह देखकर अचम्भा हो रहा है कि इस परमसत्ता ने कैसे सत्ता पक्ष से सच्चाई उगलवानी प्रारम्भ कर दी है।

  • यह कटुसत्य है कि वह शक्ति का सूर्य उदय होने ही वाला है। सूर्योदय का आभास काफी पहले होने लगता है। मनुष्य ही नहीं प्राणिमात्र के अन्दर से आलस्य समाप्त होकर एक नई चेतना का संचार होने लगता है और सूर्योदय के साथ ही सभी प्राणी सृजन में जुट जाते हैं। समय की दूरी केवल भौतिक जगत् को प्रभावित करती है। अध्यात्म जगत् में वह पूर्ण रूप से समाप्त हो जाती है। इतने लम्बे समय में भौतिक जगत में जो उन्नति हुई, अध्यात्म सत्ता को उसे अपने अधीन करने में कुछ भी समय नहीं लगेगा। जो संत उसे बहुत पहले देख चुके थे। श्री अरविन्द ने इसी कारण 24-11-1926 को भगवान श्री कृष्ण के अवतरण की स्पष्ट घोषणा कर दी। अपने क्रमिक विकास के साथ शीघ्र ही वह परमसत्ता संसार में अपना प्रकाश फैलाने वाली ही है।

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