Image Description Icon
प्रत्याक्षानुभूति या साक्षात्कार के बिना चेतना सम्भव नहीं
27 फरवरी 1988
गुरुदेव श्री रामलालजी सियाग
एवीएसके, जोधपुर के संस्थापक और संरक्षक

आज का मानव किसी ऐसी थोथी बात में विश्वास नहीं करता, जिससे कोई परिणाम न मिले। वैज्ञानिक उपलब्धियों ने इस युग के मानव को बहुत जाग्रत कर दिया है। मानव तत्काल परिणाम की माँग करता है। जीवन भर कोई परिणाम न देने वाली, किसी भी आराधना को इस युग का मानव पूर्ण रूप से नकार चुका है। ऐसी स्थिति में सभी धर्मों में प्रचलित आराधना पद्धतियों को इस युग का मानव अब स्वीकार नहीं कर रहा है। यही कारण है कि संसार के युवा वर्ग ने सभी धर्मों के धर्मगुरुओं में विश्वास खो दिया है। चन्द बुड्ढे और अशिक्षित लोगों के सहारे सभी धर्म रेंगते हुए मरणासन्न की स्थिति में पहुंच चुके हैं। ऐसे लोगों को भी इकट्ठा करने के लिए भारी प्रचार और धन का सहारा लेना पड़ रहा है। इस प्रकार अन्तिम सांस लेते हुए सभी धर्मों का पतन सन्निकट है।

  • प्रकृति कभी किसी स्थान को रिक्त नहीं छोड़ती है, जिस प्रकार बुड्ढा मनुष्य मरता है, उससे पहले बच्चा जवान होकर उसका स्थान लेने को तैयार हो जाता है, उसी प्रकार का बदलाव संसार की हर वस्तु में निरन्तर हो रहा है। गति का नाम ही जीवन है। संसार की हर वस्तु निरन्तर गतिशील है। सृजन की शक्ति युवा काल ही है। यह सिद्धान्त संसार की हर वस्तु पर लागू होता है। शक्तिहीन वस्तु में सृजन की क्षमता समाप्त प्रायः हो जाती है। ऐसी स्थिति में सभी धर्मों की मृतप्रायः, निरर्थक आराधना पद्धतियों का अन्तिम समय है। प्रकृति निश्चित रूप से इस स्थान की पूर्ति के लिए निश्चित समय पर नई शक्ति को संसार के जीवों के कल्याण के लिए प्रकट करेगी।

  • इस सम्बन्ध में महर्षि अरविन्द ने स्पष्ट इशारा कर दिया है। उस परमसत्ता तक पहुँच कर उसका साक्षात्कार और प्रत्यक्षानभूति करना सम्भव है, इस सम्बन्ध में जो पथ श्री अरविन्द ने दिखाया है, उसके अलावा कोई रास्ता है ही नहीं। बहिर्मुखी आराधना से असंख्य जन्मों में भी उस परमसत्ता तक पहुँचना सम्भव नहीं है। मुझे भी इस प्रकार की अनुभूतियाँ सालों से हो रही हैं। गुरुदेव के स्वर्गवास के बाद तो मुझसे जुड़ने वाले लोगों को भी श्री अरविन्द द्वारा वर्णित अनुभूतियाँ हो रही है।

ईश्वर यदि है तो उसके अस्तित्व को अनुभव करने का, उनके साक्षात् दर्शन प्राप्त करने का कोई न कोई पथ होगा, वह पथ चाहे कितना ही दुर्गम क्यों न हो, उस पथ से जाने का मैंने दृढ़ संकल्प कर लिया है। हिन्दू धर्म का कहना है कि अपने शरीर के, अपने भीतर ही वह पथ है, उस पर चलने के नियम भी दिखा दिये हैं। उन सब का पालन करना मैंने प्रारम्भ कर दिया है, एक मास के अन्दर अनुभव कर सका हूँ कि हिन्दू धर्म की बात झूठी नहीं है, जिन-जिन चिह्नों की बात कही गई है, मैं उन सब की उपलब्धि कर रहा हूँ।

- श्री अरविन्द

    इस कार्य को श्री अरविन्द क्यों करना चाहते थे, इस सबन्ध में उन्होंने स्पष्ट करते हुए कहा है -

  • "मैं अपने निज के लिए कुछ भी नहीं कर रहा हूँ क्योंकि मुझे अपने लिए न मोक्ष की आवश्यकता है, न अतिमानसिक सिद्धि की। यहाँ मैं इस सिद्धि के लिए जो यत्न कर रहा हूँ, वह केवल इसलिए कि पार्थिव चेतना में इस काम का होना आवश्यक है। और अगर यह पहले मेरे अन्दर न हुआ तो औरों में भी न हो सकेगा।"

  • उपर्युक्त से स्पष्ट होता है कि जितने भी महान् संत हुए हैं, उन्होंने अपने लिए कुछ भी नहीं किया। उस परमसत्ता तक पहुँचने का रास्ता जीव मात्र के कल्याण के लिए खोजा। ऐसे ही परम हितैषी और दयालु संत सत्गुरु संसार का कल्याण करने में सक्षम होते हैं। वे अपने जीवन में इस बात की झलक तक नहीं दिखाने देते कि वे क्या कर रहे हैं ? उस परमसत्ता तक पहुंचने का रास्ता खोज कर उसका साक्षात्कार करके उसी में लीन हो जाते हैं। संसार से विदा होने से पहले वे इस अपनी अर्जित परम शक्ति को किसी ऐसे उपयुक्त पात्र को सौंप कर जाते हैं, जो संसार के प्राणी मात्र के कल्याण के लिए इसका उपयोग कर सके। यह होता है सच्चा त्याग। अपनी जीवन भर की कमाई को अनायास ही संसार की भलाई के लिए अर्पित करके चुपचाप चले जाते हैं। घमण्ड, प्रदर्शन लालसा आदि कोई भी तामसिक वृति उनके पास भी नहीं फटक सकती। ऐसी अहेतु की कृपा से मिली दौलत ही मैं संसार में बाँटने निकल पड़ा हूँ। मेरा इसमें कुछ भी नहीं है। मैं तो मात्र उस परमआत्मा का सेवक हूँ। मैं तो सेवा के बदले मजदूरी मात्र का अधिकारी हूँ। जो कुछ बाँट रहा हूँ, उस धन पर मेरा रत्ति भर भी अधिकार नहीं है।

शेयर करेंः